मरने के बाद जीना (व्यंग्य)
Literaturearticles मरने के बाद जीना (व्यंग्य)

मरने के बाद जीना (व्यंग्य) विदेशियों की सोच, उनके कारनामे, नए विषयों पर सर्वे, मुझे हमेशा सोचने को उद्वेलित करते हैं। दिलचस्प यह है कि हमारे यहां उनसे काफी कुछ सीखने की खासी कोशिश की जाती है। वैसे भी हम विदेशियों से प्रेरित होने, प्रभावित होकर सीखने में महारत रखते हैं। बेशक, राग हम अपनी पारंपरिक भारतीय संस्कृति का अलापते रहें लेकिन इतना कुछ विदेशी हवा पानी हजम कर लिया, विदेशी वस्त्र पहन लिए जिन्हें  भुलाना और छोड़ना अब मुश्किल है। कम कपडे उतार कर फेंकना सभ्य होना नहीं। एक बार छोटे छोटे रंग बिरंगे कपडे पहनने का शौक हो जाए तो ज़्यादा कपडे पहनना परेशान करने लगता है। 

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हम जिए जा रहे थे, वो मरे जा रहे थे (कविता)
Literaturearticles हम जिए जा रहे थे, वो मरे जा रहे थे (कविता)

हम जिए जा रहे थे, वो मरे जा रहे थे (कविता) कवि ने इस कविता के माध्यम से समाज के स्वार्थपन पर तंज कसा है यह बताने की कोशिश की है कि कैसे परिस्थितियों के हिसाब मनुष्य की पात्रता बदलती है और आखिर में उसके कर्मों की चर्चा होती है।  

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संकल्प न लेने का संकल्प (व्यंग्य)
Literaturearticles संकल्प न लेने का संकल्प (व्यंग्य)

संकल्प न लेने का संकल्प (व्यंग्य) नया साल धूमधाम से पधारने और पुराना चुपचाप खिसक जाने के बीच कितने ही संकल्प, धारण किए बिना रह जाते हैं। पिछले साल दिसंबर में सोच रहा था कि अगले साल के उपलक्ष्य में आधा दर्जन नए संकल्प तो लेकर रहूंगा। अब एक और नया साल आने को है, सोचता हूं पिछले चार साल से चल रहे अधूरे संकल्प मन ही मन धारण कर लूं। वैसे भी समाज सेवा जैसे अनूठे कार्य के लिए, पुराने अच्छे संकल्प दोबारा ओढ़ लेना, नया नैतिक कार्य करने जैसा ही तो है। 

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नया साल आया है, नया सवेरा लाया है (कविता)
Literaturearticles नया साल आया है, नया सवेरा लाया है (कविता)

नया साल आया है, नया सवेरा लाया है (कविता) नए साल की दस्तक मन में नए उत्साह का संचार करती है। जब कैलेंडर बदलता है तो हम सभी अपने जीवन में एक सकारात्मक बदलाव की उम्मीद करते हैं। जिन सपनों व गोल्स को हम बीते साल में पूरा नहीं कर पाए, उन्हें आने वाले समय में पूरा होने की उम्मीद रखते हैं। हम सभी नए साल पर कुछ संकल्प लेते हैं। कवि इस कविता में इन सभी चीजों को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है।

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वोटिंग बढाने के आम नुस्खे (व्यंग्य)
Literaturearticles वोटिंग बढाने के आम नुस्खे (व्यंग्य)

वोटिंग बढाने के आम नुस्खे (व्यंग्य) बिगड़ते, गिरते, संभलते वक़्त ने वोटर का मिजाज़ बदल लिया है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी में नगर चुनाव में पचास प्रतिशत वोटर घर पर ही रहे, सर्दियों की धूप का मज़ा लिया, वोट डालने नहीं गए। वैसे तो किसी भी लोकतान्त्रिक चुनाव में सभी को वोट डालने की ज़रूरत नहीं होती। समझदार जुगाडू नागरिकों को अपने काम करवाने आते हैं इसलिए चुनाव के दिन को भी अराजपत्रित अवकाश मानकर, लोकतंत्र का शुक्रिया अदा करते हैं। यह अनुभव में लिपटा सत्य है कि चतुर पार्टी, जाति, क्षेत्र, सम्प्रदाय व धर्म की मिटटी जमाकर, उचित उम्मीदवार उगाती है। वह बात दीगर है कि चुनाव लड़ने वाला हर शख्स कहता है कि वही जीतेगा। 

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Book Review: कुछ अपनी कुछ उनकी (साक्षात्कार संग्रह)
Literaturearticles Book Review: कुछ अपनी कुछ उनकी (साक्षात्कार संग्रह)

Book Review: कुछ अपनी कुछ उनकी (साक्षात्कार संग्रह) बोधि प्रकाशन के तले सन् 2018 में प्रकाशित प्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका कृष्णा कुमारी की यह दसवीं पुस्तक है। कृष्णा जी का लेखन विविधमुखी है उन्होंने कविता, निबंध, ग़ज़ल, यात्रा वर्णन, बाल साहित्य सब पर कलम चलायी है। यह उनकी साहित्यिक रेंज और परिश्रम का परिचायक है। 

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चींटी के सामने इंसान (व्यंग्य)
Literaturearticles चींटी के सामने इंसान (व्यंग्य)

चींटी के सामने इंसान (व्यंग्य) विदेशों में किए जा रहे सर्वे, अध्ययन और योजनाएं मुझे अक्सर हैरान करती हैं। ऐसा बार बार हो रहा है। विदेशियों के ढंग निराले हैं न जाने कैसे कैसे काम करते रहते हैं। पता चला है कुछ महीने पहले हांगकांग विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने चींटियों की गणना की। हैरानी की बात है न। हमारे यहां तो बंदरों, कुत्तों की गिनती  की जाती है। यह नहीं पता कि कैसे की जाती है। कुछ गलत लोग कहते हैं कि वास्तव में की नहीं जाती बलिक निपटा दी जाती है। लगता है बंदरों और कुत्तों की गणना करना मुश्किल है और इंसानों की जातीय गणना करना आसान है। वैसे तो हमारे यहां वृक्षों की गणना भी की जाती है और हर गिनती के बाद वृक्ष और हरियाली बढ़ा दी जाती है।   

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जब सरकार बदलती है (व्यंग्य)
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जब सरकार बदलती है (व्यंग्य) चुनाव की घोषणा के कुछ दिन बाद ही माहौल में शगूफा छोड़ा गया कि जीत गए तो लूटेंगे हार गए तो कूटेंगे। ऐसी आधिकारिक घोषणा विपक्षी पार्टी के बंदे तो नहीं कर सकते थे। पांच साल से हर तरह से उनकी कुटाई ही हो रही थी। इस गैर राजनीतिक घोषणा ने प्रशासन के हाथ पांव और दिमाग भी फुला दिए। बड़े आकार के अफसरान को छोटे अफसरान ने बाअदब सूचित किया। उन्होंने सुरक्षा कारिंदों को हिदायत दी कि क़ानून व्यवस्था कतई नहीं बिगडनी नहीं चाहिए। चाहे कुछ भी करना पड़े। ख़ास लोगों को लुटने और पिटने से बचाकर रखना है और विशेष लोगों को लूटने और पीटने नहीं देना है। मतदान से पहले दिन पुलिस ने फ्लैग मार्च कर सबको दिखा दिया  कि सुरक्षा चुस्त दरुस्त है। मतदान के दिन धारा 244 लगा दी गई। वोटदाताओं ने मन ही मन प्रिय लोगों को गालीदान के सिवा कोई गलत काम नहीं किया।   जनता भी नेताओं की तरह सच्चे झूठे वायदे करती है। नकली मुस्कुराहटें लेती और बनावटी मुस्कुराहटें देती है। नेताजी वोट मांगने आते हैं तो कहती है आप तो विकास नायक हैं और हमारे दिल में रहते हैं।  सम्प्रेषण और विज्ञापन का बड़ा फायदा है, हर उम्र के लोग जान गए हैं कि आजकल रोजाना की ज़िंदगी में झूठ, फरेब, नक़ल और धोखे जैसे गुणों बिना गुज़ारा नहीं है। पांच साल तक, सुबह, दोपहर, शाम, रात और नींद में सिर्फ विकास किया, खाया, पिया और पहना। खूब मेहनत, सहयोग और जुगाड़ से पैसा इक्कठा किया था। शादी और चुनाव तो होता ही है पैसा दिखने के लिए। सारा क्षेत्र वगैरा वगैरा, बैनर, पोस्टरों से पाट दिया जिन्हें  मतदान के बाद भी नहीं उतारा। चुनाव विभाग के निर्देशों की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया वैसे सब जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को कैसे दिमाग में न बसाया जाए। उन्हें पता है कि कौन कौन से खर्चे कितने दिखाने हैं।इसे भी पढ़ें: सफाई से पटाने का ज़माना (व्यंग्य)इतना ठोस प्रबंधन, मिर्चीधार प्रचार और वर्कर्ज़ पर चढ़ा बुखार यही मान रहा था कि उन्हें हराने वाला पैदा नहीं हुआ। शासक दल के चिन्ह पर चुनाव लड़ने वाले को आशा, विशवास और अंध विशवास रहा कि वही जीतेंगे। जीतेंगे तो लूटेंगे भी। होनी को टालने वाला भी पैदा नहीं हुआ सो इस बार भी होनी हुई और पिछली बार हज़ारों वोटों से हारे बंदे ने उन्हें हज़ारों वोटों से हरा दिया। प्राचीन काल में खिंचवाई या यूं ही खिंची, ऐसी वैसी, घिसी पिटी पुरानी फ़ोटोज़ निकल आई। जिनमें से एक बंदा राजनीतिक विजेता हो गया था। विजेता स्वत ही कितने ही लोगों का दोस्त, चाचा, ताऊ या मामा हो जाता है।  

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सफाई से पटाने का ज़माना (व्यंग्य)
Literaturearticles सफाई से पटाने का ज़माना (व्यंग्य)

सफाई से पटाने का ज़माना (व्यंग्य) झाड़ू का एक ख़ास विज्ञापन मुझे पिछले दिनों से पटाने में लगा है। बहुत भक्तिशाली विज्ञापन बनाया और मॉडलिंग कराई हुडदंगी फ़िल्म ज़माने के प्रसिद्ध खलनायक से, जिन्होंने हीरो से खूब झाड़ू और झाड़ खाई। झाड़ू बेचने वाली कम्पनी अनुभवी है। दिल चाहता है झाड़ू को झाड़ू न लिखकर झाड़ूजी लिखूं। अच्छी, प्रभावशाली चीजों के नाम के साथ जी लिखना और बोलना सभ्य संस्कृति है।

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फाइवजी से सिक्सजी तक (व्यंग्य)
Literaturearticles फाइवजी से सिक्सजी तक (व्यंग्य)

फाइवजी से सिक्सजी तक (व्यंग्य) उन्होंने कब से कह रखा है कि फाइवजी को देश के चप्पे चप्पे में जल्द से जल्द पहुंचाया जाए। सही बात है, फाइवजी बहुत स्वादिष्ट है इसका कद लंबा और रंग बढ़िया है। उन्होंने और बताया कि देश की अर्थ व्यवस्था भी फाइवजी है इसलिए हाई स्पीड इंटरनेट की रफ़्तार उससे मैच करेगी। फाइवजी, फाइव स्टार से मिलता जुलता शब्द संयोजन है। ‘फाइवजी’ बोल रहे हों तो ‘फाइव स्टार’ जैसी फीलिंग आती है। यह बहुत खुशी की बात है कि फाइवजी आए हैं और वापिस नहीं जाएंगे। वह बात दूसरी है कि गरीबी कब से आई है, वापिस नहीं जाती। सरकारजी, इंसानियत के वश करोड़ों को खाना खिला रही है। गलत बंदे हैं जो कहते, वोटों के बदले खिला रही है।

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फुटबाल की राजनीति और राजनीति में फुटबाल (व्यंग्य)
Literaturearticles फुटबाल की राजनीति और राजनीति में फुटबाल (व्यंग्य)

फुटबाल की राजनीति और राजनीति में फुटबाल (व्यंग्य) फुटबाल मेरा पसंदीदा खेल है। इसके दो कारण हैं। एक तो यही कि यह दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल है और दूसरा एक बार इंटरव्यू में पूछे जाने पर सबसे पसंदीदा खेल का नाम फुटबाल मुँह से निकल गया था।  हालाँकि उस समय मेरा सबसे पसंदीदा खेल राजनीति था लेकिन उस समय तक राजनीति को खेल का दर्जा नहीं मिल पाया था। तब राजनीति करने की चीज मानी जाती थी, खेलने की नहीं यद्यपि उस समय भी ये दोनों शब्द मुझे एक दूसरे के पर्यायवाची लगते थे। आज भी राजनीति को खेल का औपचारिक दर्जा नहीं मिला है लेकिन राजनीति में खेल करने की स्वीकार्यता कई गुना बढ़ गई है। फुटबाल जितना मैदान पर खेला जाता है उतना ही मैदान से बाहर रणनीतिक स्तर पर खेला जाता है। आज जब मैं तटस्थ भाव से सोचता हूँ तो पाता हूँ कि फुटबाल और राजनीति में बहुत सी समानताएँ तो हैं ही, विरोधाभास भी बहुत है लेकिन दोनों ही मैदान और मैदान से बाहर पूरी शिद्दत के साथ खेले जाते हैं।

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भूख सूचकांक को समझना (व्यंग्य)
Literaturearticles भूख सूचकांक को समझना (व्यंग्य)

भूख सूचकांक को समझना (व्यंग्य) पहली बात तो यह कि यह सूचकांक रिपोर्ट सरासर झूठ है। हमारी निरंतर प्रगति से जल भुनकर बनाई गई है। इस में वही विदेशी हाथ है जो हमेशा हमारे देश के खिलाफ काम करता रहा है। हमारे जैसे देशों की वजह से ही संयुक्त राष्ट्र संघ चल रहा है, इन्हें सलीका होना चाहिए कि विश्वगुरु देश के बारे में क्या कहना है, क्या नहीं कहना है। हम विश्वगुरु का लिबास पहनकर, विश्व की पहली सुदृढ़ अर्थ व्यवस्था बनने की ओर, मनचाहे रंग के घोड़े पर बैठकर दौड़ रहे हैं। भूख सूचकांक बनाने वाले, कहीं उन ख़बरों से फीड बैक तो नहीं लेते जिनमें बताया जाता है कि अस्सी करोड़ लोगों को सरकारजी मुफ्त में राशन दे रही है। कोई भी ऐसी जानकारी हमसे बातचीत कर देनी चाहिए। इतने विशाल देश में, इतना कुछ खाने पीने और हजम करने के बाद कुछ देशवासी भूखे रह भी गए तो क्या हो गया। गलत नक्षत्रों में पैदा होने वाले भारतवासी और ऐसे ही दूसरों को मिलाकर भूख सूचकांक में इतने ज़्यादा अंक आ जाते हैं। वैसे ज़्यादा अंक तो ज़्यादा और अच्छे होते हैं इसलिए बेहतर सोचते हुए सकारात्मक लेना चाहिए। सूचकांक व विवरणी बनाने और निरीक्षकों को कुशाग्र तरीके से हैंडल करने में हमें महारत हासिल है। स्पष्ट है हम विश्वगुरु हैं। हमारे यहां व्रत रखने की सुदृढ़ संपन्न परम्परा है और निरंतर विकसित होती जा रही है। अगर भूखे रहने वालों को व्रत रखने वाले मानकर उनकी संख्या, व्रत रखने वालों की संख्या में जमा कर दी जाए और जान बूझकर भूखे रहने वालों की संख्या भी ज़बर्दस्ती जोड़ दी जाए तो भूख सूचकांक और नीचे आ सकता है। सुविधा संपन्न राजनीतिजी इसमें बेहद सक्रिय भूमिका निभा सकती है। इसे भी पढ़ें: मानव विकास में आगे (व्यंग्य)कितनी प्रसन्नता की बात है कि हमारे देश के दस प्रतिशत लोगों के पास, देश की सारी दौलत का सत्तावन प्रतिशत है। अगर इन आंकड़ों को निम्नस्तर पर जीने वाले लोगों के आंकड़ों के साथ, अच्छी तरह से मिक्स कर, औसत निकाली जाए तो सत्तावन प्रतिशत दौलत के आंकड़े भी तो बहुत ज्यादा कम दौलत वालों के साथ मिल जाएंगे। इनके साथ हम सिर्फ एक बार खाना खा सकने वालों की संख्या भी मिला सकते हैं। अच्छी तरह से पकाए हुए, नए ताज़े आंकड़े बनाकर यदि स्वादिष्ट प्रैस नोट जारी कर दिया जाए तो हमारे अंक काफी कम हो सकते हैं। इससे एक नया संतुष्टिदायक परिणाम निकलेगा जो संयुक्त राष्ट्र संघ वालों के भूख सूचकांक में भी उनके हिसाब से बेहतर जगह पा सकता है। 

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मानव विकास में आगे (व्यंग्य)
Literaturearticles मानव विकास में आगे (व्यंग्य)

मानव विकास में आगे (व्यंग्य) पिछले दिनों एक बढ़िया पुल गिर जाने के कारण, कुछ बंदों की जान चले जाना बताता है कि हम विकासजी के शासन में, मानव विकास में कितना आगे हैं। ऐसी ही घटनाओं के कारण संयुक्त राष्ट्र का मानव विकास सूचकांक विभाग, फिर से हमारी तरफ देखकर अपना झंडा लहराना शुरू कर देता है जिस पर छपा होता है, देखो देखो मानव सूचकांक में तुम कितना नीचे खिसक गए हो। वे अपने फीते से हमारा स्वस्थ जीवन, शिक्षा तक पहुंच, सभ्य जीवन स्तर की प्रगति नापते रहते हैं। यह बहुत गलत बात है। 

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एक खबर में सबकी क़बर (व्यंग्य)
Literaturearticles एक खबर में सबकी क़बर (व्यंग्य)

एक खबर में सबकी क़बर (व्यंग्य) एक पत्रकार ने नौकरी छोड़कर यूट्यूब चैनल शुरु कर दिया। तब एक यूजर ने पूछा, यदि पहले की तरह किसी ने इसे भी खरीद लिया तो कहाँ जाओगे?

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टोपी पहनाने वाले (व्यंग्य)
Literaturearticles टोपी पहनाने वाले (व्यंग्य)

टोपी पहनाने वाले (व्यंग्य) नेताजी सेक्रेटरी के रग-रग से वाकिफ़ थे। उन्होंने सेक्रेटरी की चिंता का कारण पूछा। सेक्रेटरी ने कहा– साहब!

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हम काले हैं तो क्या हुआ (व्यंग्य)
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हम काले हैं तो क्या हुआ (व्यंग्य) मुरारी जी वैसे तो गोरे-चिट्टे आकर्षक कदकाठी के व्यक्ति हैं। समाज के सफेदपोश व्यक्तियों के बीच अच्छी पैठ रखते हैं। लेकिन जबसे विरोधी सरकार आई है, उनके काले कारनामे स्थानीय अखबारों की सुर्खियाँ बनते रहे हैं। पिछले दिनों उनको तस्करी और मनीलांड्रिंग के आरोपों में संबधित अफसरों से सौदा नहीं पटने के कारण सलाखों के पीछे भेजा गया। उनके बडे भाई बिहारी जी चाइल्ड ट्रैफिकिंग और जिस्मफरोशी करवाने के आरोप में पहले से ही जेल में बंद हैं। कुछ समय पहले तक उनका भी शहर की राजनीति में अच्छाखासा रसूख था। जनसेवा करते करते कब वह तनसेवा के उद्यम में आ गए उन्हें भी पता नहीं चल सका। मुरारी जी के एक परम मित्र हैं त्रिपुरारी जी। वह एक ब्रह्मांडवादी पार्टी के फायरब्रांड नेता हैं। वह अपनी काली जुबान से एक राउंड में 100 से ज्यादा तड़ातड़ फायर करने में सक्षम हैं। जब भी वह रौ में आकर अपनी जुबान खोलते हैं, दंगे-फसाद, आगजनी और लूटमार जैसे धंधेबाज अपने-अपने काम में लग जाते हैं। उनकी इसी काबिलियत के कारण बहुतेरे नेता अपने क्षेत्रों में चुनाव प्रचार की सुपारी देने उनके दरवाजे पर खडे नजर आते हैं।

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महंगाई डायन खाए जात है (व्यंग्य)
Literaturearticles महंगाई डायन खाए जात है (व्यंग्य)

महंगाई डायन खाए जात है (व्यंग्य) मौसी: क्या बताए बेटा, 400 रुपए वाला सिलेंडर 1200 रुपए, साठ रुपए वाला पेट्रोल 109 रुपए, 399 रुपए वाला मोबइल रिचार्ज 599 रुपए, 200 रुपए वाला टीवी रिचार्ज 450 रुपए, 3 रुपए का प्लाटफार्म टिकट 50 रुपए और 60 रुपए वाला खाने का तेल 200 रुपए हो गया। लगता है महंगाई की होड़ जेट स्पीड से है। अब तुम्हीं बताओ बेटा हम जैसे लोग कैसे जिएँ?

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इधर के हुए न उधर के (व्यंग्य)
Literaturearticles इधर के हुए न उधर के (व्यंग्य)

इधर के हुए न उधर के (व्यंग्य) एक अंग्रेजी माध्यम की पाठशाला में हिंदी अध्यापिका बच्चों को हिंदी पढ़ा रही थी। अध्यापिका ने देखा कि कक्षा में बच्चे बड़ी शरारत कर रहे हैं। उन्होंने सबको डाँटते-फटकारते हुए कहा चुपचाप बैठने के लिए कहा। बच्चों ने कहा, टीचर आपकी हिंदी हमारे पल्ले नहीं पड़ रही है। टीचर ने पलटकर कहा, डियर स्टूडेंट्स!

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थोड़ा रोना ज़रूरी होता है (व्यंग्य)
Literaturearticles थोड़ा रोना ज़रूरी होता है (व्यंग्य)

थोड़ा रोना ज़रूरी होता है (व्यंग्य) पिछले दिनों जनसभाओं में तरह तरह के नेताओं की आंखों से भावना जल बह निकला जिससे स्वाभाविक है आम जनता उद्वेलित हुई होगी। यह आंसू आम आंखों से बहने वाला पानी नहीं था कि चर्चा न हो, खबर न बने, सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल न हो। विपक्ष या सख्त हृदय वाले लोग इन्हें चुनावी आंसू कह सकते हैं। आम आदमी के आंसू, धांसू नहीं हो सकते लेकिन जब ख़ास व्यक्तियों के आंसू बहें तो पीड़ा स्वत बहने लगती है कि हाय मुझ जैसे काबिल, मेहनती बंदे को टिकट नहीं दिया, भ्रष्टाचार के झूठे आरोप लगाए, शपथ पत्र देना पड़ा। क्या भ्रष्टाचार के राजनीतिक आरोप सच्चे भी हो सकते हैं, कितना दिलचस्प हो यदि सच्चे आरोप लगाए जाएं। 

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इंसान से आगे नहीं रोबोट (व्यंग्य)
Literaturearticles इंसान से आगे नहीं रोबोट (व्यंग्य)

इंसान से आगे नहीं रोबोट (व्यंग्य) मुझे विदेशियों द्वारा शोध के लिए उठाए विषयों से हमेशा हैरानी होती है। पता नहीं क्यूं अजीब विषयों पर दिमाग खपाते रहते हैं। पिछले दिनों जो शोध किया वह पूरी इंसानियत को दुखी करने वाला है। इनके अनुसार इंसान का दिमाग बहुत फितरती साबित हुआ है। प्राकृतिक बुद्धि कम पड़ रही थी तभी तो कृत्रिम बुद्धि बनाई ताकि मुश्किल और असंभव काम करवाए जा सकें। अपना मानसिक बोझ उस पर लाद सकें लेकिन कृत्रिम बुद्धि तो कुबुद्धि साबित हो रही है। 

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संतुष्टि एक स्वादिष्ट वस्तु है (व्यंग्य)
Literaturearticles संतुष्टि एक स्वादिष्ट वस्तु है (व्यंग्य)

संतुष्टि एक स्वादिष्ट वस्तु है (व्यंग्य) जब संतुष्टि एक स्वादिष्ट वस्तु की तरह मान ली जाए तो यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि उचित समय आ गया है जब हमारे सभ्य समाज में किसी भी किस्म की बुराई माने जाने वाली बुराई नहीं रहनी चाहिए। देश में सरकार है तो कानून है, कानून है तो अनुशासन है, अनुशासन है तो सभ्य समाज है, सभ्य समाज है तो बेहतर और आनंदित जीवन निरंतर है। 

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कागजी शेर, मैदान में हुए ढेर (व्यंग्य)
Literaturearticles कागजी शेर, मैदान में हुए ढेर (व्यंग्य)

कागजी शेर, मैदान में हुए ढेर (व्यंग्य) इंग्लैंड के हाथों करारी हार झेलने के बाद एक भारतीय प्रशंसक अत्यंत क्रोधित हो गया। उससे रहा नहीं गया। उसने भारतीय टीम से कहा– “मिल गई तसल्ली तुम्हें मैच हार के। पुराने मैचों में तुम्हारे तीसमार खाँ कारनामों के विश्लेषण करते हुए मीडिया तुम्हारी वाहवाही करेगा। कहेगा चलो कोई बात नहीं बाकी मैच तो अच्छा खेले। खाक अच्छा खेले?

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जेब और इज्जत (व्यंग्य)
Literaturearticles जेब और इज्जत (व्यंग्य)

जेब और इज्जत (व्यंग्य) हमने एक साहब को दुकान के उद्घाटन पर बतौर मुख्य अतिथि न्यौता दिया। मुख्य अतिथि उन्हीं को बनाना चाहिए जो आगे चलकर हमारे काम आ सके। वो क्या है न कि उनके नाम से दो-चार विज्ञापन यूँ ही झड़ जाते हैं जैसे हवा के चलने से पेड़ के सूखे पत्ते। साहब पर कई मुकदमे चल रहे हैं। खाने के नाम पर पैसा, ओढ़ने के नाम पर बेईमानी, बचाने के नाम पर टैक्स और दिखाने के नाम पर ठेंगा इनका शगल है। वे प्रायः बाहर रहते हैं। उन्हें अंदर की हवा पसंद नहीं है। समाचार पत्रों का पहला पन्ना छोड़कर बाकी सब पन्ने पढ़ने के शौकीन हैं। पहले पन्ने पर इन्हीं की कारस्तानियों की खबरें छाई रहती हैं, ऐसे में खुद के बारे में पढ़ना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। 

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