नेहरू का भोलापन, माउंटबेटन की संदिग्ध भूमिका, क्या है 75 साल पुरानी कश्मीर की वो कहानी, जिसको लेकर आज तक है विवाद
आज से ठीक 10 दिन पहले यानी 26 अक्टूबर का दिन था, साल 1947 भारत की आजादी का साल। देश की राजधानी दिल्ली से करीब 643 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जम्मू कश्मीर का अमर पैलेस- "मैं महाराजा हरि सिंह जम्मू और कश्मीर को हिंदुस्तान में शामिल होने का ऐलान करता हूं।" इन लफ्जों के साथ महाराजा ने अपनी रियासत को हिंदुस्तान में शामिल होने के लिए एग्रीमेंट पर साइन कर दिया। इन शब्दों के साथ ही जम्मू और कश्मीर का मसला हमेशा के लिए खत्म हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? कुछ लोग कहते हैं महाराजा हरि सिंह ने देर कर दी, इसलिए हम लोग कश्मीर समस्या को आज तक सुलझा नहीं पाए। कुछ लोग कहते हैं पंडित नेहरू यूएन चले गए, इसलिए आज तक हमारे सामने यह समस्या है तो कुछ लोग कहते हैं कि यह समस्या पाकिस्तान ने बनाई है। आज भी जम्मू कश्मीर का मसला देश की राजनीति में नए विवाद को जन्म देता रहता है। ऐसा ही ताजा विवाद इन दिनों देखने को मिला जब जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर पंडित नेहरू की भूमिका पर हाल ही में केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने एक लेख लिखा। इस लेख में रिजिजू ने जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर पांच नेहरूवादी भूलों के केरना का आरोप लगाया। जिसकी वजह से जम्मू कश्मीर के विलय के मामले में समस्याएं पैदा हुई। वहीं पूर्व केंद्रय मंत्री कर्ण सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर के दौरान अपने पिता स्वर्गीय राजा हरि सिंह की भूमिका के खिलाफ रिजिजू के आरोपों का जावब दिया। उन्होंने एक लेख लिखा जिसमें कहा कि रिजिजू ने कहा था कि मेरे पिता 15 अगस्त से पहले भारत में विलय को तैयार थे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू तबतक इसे स्वीकार नहीं करना चाहते थे जबतक इसमें वहां के लोगों की रजामंदी न हो।फिर क्या था इसमें कांग्रेस भी कूद पड़ी। जयराम रमेश ने ट्विट करते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर पर ऐसा कोई विद्वतापूर्ण और गंभीर अध्ययन सामने नहीं आया है जो महाराजा हरि सिंह को अच्छी भूमिका में प्रदर्शित करे। कुल मिलाकर कहा जाए तो पूरी लड़ाई धारणाओं के आधार पर लड़ी जा रही है, जिससे तथ्य हताहत हो गए हैं।
भारत ने पाकिस्तान को कैसे कश्मीर समस्या का पक्षकार बना लिया
कहानी की शुरुआत कश्मीर के महाराजा ने स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षाओं को बरकरार रखते हुए की थी, लेकिन पाकिस्तान के हमले के बाद उन्होंने बिना शर्त विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे जिसे भारत के गवर्नर जनरल ने बिना शर्त स्वीकार कर लिया था। माउंटबेटन के 27 अक्टूबर 1947 को महाराजा को लिखे पत्र में राज्य के विलय की स्वीकृति की सूचना दी गई थी। ऐसा करते हुए, माउंटबेटन ने कहा कि भारत सामान्य परिस्थितियों की वापसी पर राज्य के लोगों की इच्छाओं का पता लगाएगा। 27 अक्टूबर 1947 को नेहरू ने कुछ दिनों पहले जम्मू और कश्मीर के नए प्रधान मंत्री के रूप में श्रीनगर पहुंचे मेहर चंद महाजन और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला को संयुक्त राष्ट्र को निगरानी में शामिल करने के अपने फैसले के बारे में बताया था। नेहरू यहीं नहीं रुके उन्होंने स्थिति को और बढ़ा दिया जब 3 नवंबर को, उन्होंने पाकिस्तान के प्रधान मंत्री लियाकत अली खान को पत्र लिखते हुए कहा कि संयुक्त राष्ट्र जैसी निष्पक्ष अंतरराष्ट्रीय एजेंसी किसी भी जनमत संग्रह की निगरानी करने" के लिए कहने का निर्णय लिया गया था। चूंकि पाकिस्तान ने उस समय कश्मीर में अपनी संलिप्तता से इनकार किया था और कहा था कि हमलावर कबायली आक्रमणकारी थे, यह भारत के लिए कश्मीर में पाकिस्तान की भूमिका को समाप्त करने का एक अवसर था। थोड़ी देर के लिए, नेहरू दृढ़ थे और उन्होंने माउंटबेटन से कहा था कि "जो कुछ भी हुआ वह कश्मीर समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए हुआ। वो पाकिस्तान को कोई जगह नहीं देना चाहते थे। लेकिन उनका संकल्प जल्द ही गायब होता दिखा। आज आए मौके को पाकिस्तान भला इतनी आसानी से कैसे जाने देता। उन्होंने अंतरिम अवधि में कश्मीर के लिए एक विशेष और स्वतंत्र प्रशासक की नियुक्ति का भी सुझाव दिया। हालांकि उनके सभी सुझाव नेहरू को अस्वीकार्य थे। लेकिन भारत ने इस मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ डील करना जारी रखा और जाने-अंजााने में पाकिस्तान को कश्मीर समस्या का एक पक्षकार बना लिया। वहीं दोनों देशों की तरफ से बैटिंग कर रहे माउंटबेटन ने नेहरू को सुझाव दिया यदि वह कश्मीर प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र में भेजने के लिए सहमत होते हैं, तो यह "पूरे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा को बढ़ाएगा"। नेहरू ने माउंटबेटन के सुझाव पर विचार करते हुए उनसे कहा कि इस तरह का संदर्भ पाकिस्तान पर कश्मीर में आक्रामकता का आरोप लगाना होगा।
संयुक्त राष्ट्र में मुद्दा
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने जनवरी 1948 में इस मामले को उठाया। न्यायविद सर जफरुल्ला खान ने पाकिस्तानी स्थिति के पक्ष में पांच घंटे तक बात की। सरदार वल्लभभाई पटेल के निजी सचिव वी शंकर ने अपने संस्मरण स्कोफिल्ड में कहा है कि भारत की तरफ से ब्रिटिश प्रतिनिधि, फिलिप नोएल-बेकर की भूमिका से नाखुश था, कहा जाता है कि परिषद को पाकिस्तान की स्थिति की ओर धकेल रहा था। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से किए गए हमले की हमारी शिकायत पर सुरक्षा परिषद में चर्चा ने बहुत प्रतिकूल मोड़ ले लिया है। जफरुल्ला खान, ब्रिटिश और अमेरिकी सदस्यों के समर्थन से, उस शिकायत से ध्यान हटाकर जम्मू-कश्मीर के प्रश्न पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की समस्या की ओर ध्यान हटाने में सफल रहा था। सरदार पटेल के निजी सचिव के अनुसार जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान के हमले को उसकी आक्रामक रणनीति के कारण पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया था। मानों जैसेहमने उसका मुकाबला करने के लिए कुछ नम्र और रक्षात्मक मुद्रा अपना रखी हो। 20 जनवरी, 1948 को, सुरक्षा परिषद ने विवाद की जांच के लिए भारत और पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसीआईपी) की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव पारित किया और मध्यस्थता प्रभाव से कठिनाइयों को दूर करने की संभावना" को अंजाम दिया। सरदार पटेल नेहरू द्वारा मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने से असहज थे, और उन्हें लगा कि यह एक गलती है। स्कोफिल्ड में उन्होंने लिखा कि न केवल विवाद लंबा चला गया है, बल्कि सत्ता की राजनीति की बातचीत में हमारे मामले की योग्यता पूरी तरह से खो गई है।
यूएन में जाने की भूल, जिसकी कीमत दशकों तक देश ने चुकाई
जाहिर तौर पर इन्हीं प्रतिकूल परिस्थितियों में नेहरू ने इस उम्मीद में संयुक्त राष्ट्र जाने का फैसला किया। उन्हें लगा कि ये युद्ध को समाप्त करेगा और स्थिति को स्थिर करेगा। लेकिन संयुक्त राष्ट्र में जाने के बाद, भारत ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित जनमत संग्रह द्वारा कश्मीर मुद्दे को सुलझाने की पेशकश में एक और सामरिक गलती की। इस प्रस्ताव के द्वारा, नई दिल्ली ने अपने संप्रभु अधिकार को एक बाहरी एजेंसी को सौंप दिया। एक बार में, कश्मीर एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन गया, और हमलावर पाकिस्तान को विवाद के दूसरे पक्ष के बराबर ला खड़ा कर दिया गया। भारत ने खुद को दलदल में पाया, जिससे उसे खुद को निकालना मुश्किल हो गया है। बहरहाल, घरेलू राजनीति के लिए यह एक जीवंत मुद्दा है, जो राजनीतिक की जरूरतों के अनुसार समय-समय पर पुनर्जीवित होता रहता है। 2019 में कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद से इस बहस ने एक नया रूप भी ले लिया है।
75 year old story of kashmir which is still in dispute