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लोकसभा चुनाव से पहले अति पिछड़ों को साधने के लिए मायावती ने बिछाया राजनीतिक जाल

लोकसभा चुनाव से पहले अति पिछड़ों को साधने के लिए मायावती ने बिछाया राजनीतिक जाल

लोकसभा चुनाव से पहले अति पिछड़ों को साधने के लिए मायावती ने बिछाया राजनीतिक जाल

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने उत्तर प्रदेश बसपा की कमान अपने एक अति पिछड़े नेता को सौंप कर अति पिछड़ों की सियासत को एक बार फिर से गरमा दिया है। पिछड़ों में अति पिछड़ा कि सियासत काफी पुरानी है। ठीक वैसे ही जैसे दलितों और पिछड़ों के आरक्षण कोटे में अति पिछड़ा और अति दलितों को अलग से कोटे में कोटे की बात होती है। अति दलितों और अति पिछड़ों की सियासत से कोई भी दल बच नहीं पाया। चाहे भाजपा हो, सपा हो अथवा कांग्रेस-बसपा, सभी समय-समय पर इस सियासत में हाथ पैर मारते रहे हैं। जून 2019 में अपने पहले कार्यकाल में योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश की 17 अति-पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति के प्रमाणपत्र जारी करने का आदेश जारी किया था, जोकि इलाहबाद हाई कोर्ट के अखिलेश यादव सरकार द्वारा 17 अति–पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के आदेश पर लगे स्टे के हट जाने के परिणामस्वरूप जारी किया गया है। जबकि इसमें इस मामले के अंतिम निर्णय के अधीन होने की शर्त लगायी गयी थी।

इससे पहले अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने दिसंबर 2016 को विधानसभा चुनाव से कुछ माह पूर्व 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने का निर्णय लिया था, जिनमें निषाद, बिन्द, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति, राजभर, कहार, कुम्हार, धीमर, मांझी, तुरहा तथा गौड़ आदि जातियां शामिल थे। ज्ञातव्य है कि सरकार का यह कदम इन जातियों को कोई वास्तविक लाभ न पहुंचा कर केवल उनको छलावा देकर वोट बटोरने की चाल थी। यह काम लगभग सभी पार्टियाँ करती रही हैं और कर रही हैं।

इससे पहले भी वर्ष 2006 में मुलायम सिंह की सरकार ने 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची तथा 3 अनुसूचित जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने का शासनादेश जारी किया था, जिसे आंबेडकर महासभा तथा अन्य दलित संगठनों द्वारा न्यायालय में चुनौती देकर रद्द करवा दिया गया था। परन्तु सपा ने यह दुष्प्रचार किया था कि इसे मायावती ने 2007 में सत्ता में आने पर रद्द कर दिया था।

वहीं वर्ष 2007 में सत्ता में आने पर 2011 में मायावती ने भी इसी प्रकार से 16 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की संस्तुति केन्द्र सरकार को भेजी थी। इस पर केन्द्र सरकार ने इस के औचित्य के बारे में उस से सूचनाएं मांगी तो वह इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकी और केन्द्र सरकार ने उस प्रस्ताव को वापस भेज दिया था।

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दरअसल, समाजवादी पार्टी और बसपा तथा अब भाजपा इन अति-पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल कराकर उन्हें अधिक आरक्षण दिलवाने का लालच देकर केवल उनका वोट प्राप्त करने की राजनीति कर रही हैं जबकि वे अच्छी तरह जानती हैं कि न तो उन्हें स्वयं इन जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने का अधिकार है और न ही यह जातियां अनुसूचित जातियों के माप दंड पर पूरा ही उतरती हैं। वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार किसी भी जाति को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने अथवा इससे निकालने का अधिकार केवल संसद को ही है। राज्य सरकार औचित्य सहित केवल अपनी संस्तुति केन्द्र सरकार को भेज सकती है। इस सम्बन्ध में केन्द्र सरकार ही रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया तथा रष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग से परामर्श के बाद संसद के माध्यम से ही किसी जाति को सूची में शामिल कर अथवा निकाल सकती है। इसीलिए कहा जाता है यह सिर्फ अति पिछड़ी जातियों को केवल गुमराह करके वोट बटोरने की राजनीति रही है जिसे अब शायद ये जातियां भी बहुत अच्छी तरह से समझ गयी हैं, लेकिन इस पर राजनीति तो जारी है ही। जिसको बसपा सुप्रीमो मायावती ने सिर्फ आगे ही बढ़ाया है, जिसकी उन्हें इस समय काफी जरूरत भी है।

उत्तर प्रदेश में पिछले दस सालों में अगर किसी राजनीतिक दल ने सबसे ज्यादा जनाधार खोया है तो वह है बहुजन समाज पार्टी। इसीलिए वह प्रयोग पर प्रयोग कर रही है, जिस पार्टी ने 2007 में अकेले दम पर उत्तर प्रदेश में बहुमत की सरकार बनाई, उससे 2012 के बाद से जनता का ऐसा मोहभंग हुआ कि आज 2022 में सिर्फ एक विधायक के साथ विधानसभा में खड़ी है। ऐसा नहीं है कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने प्रयास नहीं किया लेकिन हर बार उनकी रणनीति फेल ही होती रही। लगातार हार के कारण पार्टी से भी तमाम नेता दूरी बना चुके हैं। अब मायावती अपने 15 साल पुराने दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को त्याग चुकी है। वह वापस दलित, मुस्लिम गठजोड़ की सियासत कर रही है। इसके साथ ही उनकी ओबीसी जातियों पर भी नजर है। यही कारण है कि राम अचल राजभर, आरएस कुशवाहा के बाद उन्होंने भीम राजभर को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। हालांकि ओबीसी जातियों को जोड़ने में कुछ खास सफलत नहीं मिली लेकिन मायावती ने उम्मीद नहीं छोड़ी है। इसी क्रम में पार्टी के पुराने कैडर में शुमार अयोध्या के विश्वनाथ पाल को बसपा का नया प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है।
     
उत्तर प्रदेश में ओबीसी जातियों का 50 फीसदी से ज्यादा वोट बैंक है। प्रदेश में 79 ओबीसी जातियां हैं, इनमें भी गैर यादव जातियों की बात करें तो करीब 40 फीसदी का वोट प्रतिशत बैठता है। भाजपा से लेकर सपा और बसपा, सभी पार्टियों की नजरें इसी वोट बैंक पर रहती हैं। अब मायावती ने विश्वनाथ पाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर इसी 40 प्रतिशत वोटबैंक पर लक्ष्य केंद्रित किया है। उन्होंने खुद अपने ट्वीट में कहा, “विश्वनाथ पाल, बी.एस.पी. के पुराने, मिशनरी कर्मठ व वफादार कार्यकर्ता हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि वे विशेषकर अति-पिछड़ी जातियों को बी.एस.पी. से जोड़कर, पार्टी के जनाधार को बढ़ाने में पूरे जी-जान से काम करके सफलता जरूर अर्जित करेंगे।”

राजनीतिक विश्वलेषकों के अनुसार मायावती ने विश्वनाथ पाल का चयन कर साफ कर दिया है कि राजभर वोट बैंक से ज्यादा अब पार्टी पाल वोट बैंक पर ध्यान केंद्रित करेगी। वैसे राजभर वोट बैंक का झुकाव परंपरागत रूप से बसपा की तरफ रहा है। सुभासपा के ओम प्रकाश राजभर भी बसपा से ही निकले नेता हैं। 2017 में भाजपा ने इस वोट बैंक पर ध्यान केंद्रित किया और सुभासपा के साथ गठबंधन किया। ओम प्रकाश राजभर योगी सरकार में मंत्री भी बनाए गए लेकिन साथ ही भाजपा ने अपने यहां भी इस समाज के नेताओं की पौध तैयार करनी शुरू कर दी। इस बार के विधानसभा चुनावों में ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया और उनका सीधा मुकाबला भाजपा से ही हुआ। इस पूरी सियासत में बसपा कहीं दिखाई नहीं दी। यहां तक कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भीम राजभर अपने गृह जनपद मऊ में तीसरे स्थान पर रहे। जहां माफिया मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी ने सुभासपा के टिकट पर जीत दर्ज की। मुख्तार भी बसपा में हुआ करते थे।

ओम प्रकाश राजभर अब अपने समाज के बड़े नेता बन चुके हैं, दूसरी तरफ भाजपा का भी राजभर समाज में दखल बढ़ा है। ऐसे में बसपा के लिए गुंजाइश कम दिखती है। यही कारण है कि अब मायावती ने भीम राजभर को बिहार प्रदेश की ये कहते हुए जिम्मेदारी दी है। राजनीति के जानकारों के अनुसार दरअसल पाल समाज पर दांव लगाने के पीछे की प्रमुख रणनीति उसकी आबादी भी है। उत्तर प्रदेश में राजभर समाज से ज्यादा जनसंख्या पाल समाज की मानी जाती है। पश्चिम यूपी में ब्रज क्षेत्र से लेकर बुंदेलखंड और अवध के कई जिलों में ये वोट बैंक अहम भूमिका निभाता है। इसीलिए बसपा ने पाल बिरादरी के एक नेता को उत्तर प्रदेश बहुजन समाज पार्टी की कमान सौंप कर अति पिछड़ों की राजनीति को हवा देने का काम किया है। मायावती अपनी इस रणनीति में कितना कामयाब होंगी यह 2024 के आम चुनाव से पता चलेगा। तब तक सिर्फ इंतजार किया जा सकता है।

-अजय कुमार

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