रूस जैसे तेवर और भी बड़े देशों ने दिखाये तो इस दुनिया से छोटे देशों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा
यूक्रेन के कुछ हिस्सों के रूस में विलय के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र महासभा में मतदान के बाद विश्व भर में बहस चल रही है कि यदि ताकतवर देश इस तरह छोटे देशों पर कब्जा करने लगेंगे तो यह दुनिया किस ओर जायेगी? सवाल उठ रहा है कि क्या आने वाले समय में छोटे देशों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा? सवाल यह भी उठ रहा है कि क्यों रूस के कदम के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय पूरी तरह एकजुट नहीं है? हम आपको बता दें कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में मतदान के समय 143 देश यूक्रेन की स्वतंत्रता, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के पक्ष में थे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र चार्टर के पक्ष में वोट किया। केवल चार देशों- बेलारूस, उत्तर कोरिया, निकारागुआ और सीरिया ने रूस का साथ दिया और 34 अन्य देशों के साथ भारत मतदान से गैरहाजिर रहा था। इस तरह कुल मिलाकर वैश्विक परिदृश्य यही है कि रूस ने जो किया अधिकतर देश उसे गलत ठहरा रहे हैं।
उधर, यूक्रेन के दोनेत्स्क, खेरसॉन, लुहान्स्क और जापोरिज्जिया क्षेत्रों पर रूस के कब्जे और उसके तथाकथित जनमत संग्रह को लेकर विश्व में मचे बवाल के बीच रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने उनके देश की ओर से उठाए गए कदम की पश्चिमी देशों द्वारा निंदा किए जाने को ‘झल्लाहट’ बताया है और कहा है कि कोई भी संप्रभु, स्वाभिमानी राष्ट्र जो अपने लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को महसूस करता है, वह वही करता जो रूस ने किया है।
लेकिन यहां सवाल उठता है कि इतिहास में पहले जब इस तरह की घटना हुई तब क्या हुआ और किसी क्षेत्र पर किसी देश के कब्जे के बारे में अंतरराष्ट्रीय कानून क्या कहता है? इतिहास पर नजर डालें तो करीब-करीब ऐसा कभी नहीं हुआ है कि कोई देश फौज के दम पर विजेता हुआ हो और फिर उसने बड़ी आबादी वाले इलाके को अपने देश में मिला लिया हो जैसा यूक्रेन में देखने को मिला है। हालांकि कुछ बार ऐसा हुआ है, मगर ऐसे मामलों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय करीब करीब हर बार एक साथ आया है और उसने ऐसी स्थिति को कभी मान्यता नहीं दी।
उदाहरण के लिए, साल 1974 में जब इंडोनेशिया ने ईस्ट तिमोर पर हमला किया और उस पर कब्जा कर लिया, तो इसकी निंदा की गई और वर्षों तक इसे मान्यता नहीं दी गई। आखिरकार 2002 में संयुक्त राष्ट्र प्रायोजित जनमत संग्रह के जरिए नया स्वतंत्र राष्ट्र तिमोर-लेस्त अस्तित्व में आया। वर्ष 1967 में इज़राइल ने जिन क्षेत्रों को कब्जाया था और 1974 में तुर्कीये ने साइप्रस के जिन उत्तरी हिस्सों पर कब्जा किया था, उन्हें दशकों से मान्यता नहीं दी गई है। रूस ने ही 2014 में क्रीमिया को अपने देशा में मिला लिया था जो ज़मीन कब्ज़ाने की मिसाल है जिसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ओर से मान्यता नहीं दी गई है। हालांकि मान्यता न देने से कोई खास प्रभाव तो नहीं पड़ता है। मगर मान्यता न देना हर किसी को यह आश्वस्त करता है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ऐसे विश्व को महत्व देता है जहां युद्ध न हो।
अब मान लीजिये कि रूस को इन क्षेत्रों को अपने पास रखने की अनुमति दे दी जाती है तो सवाल उठता है कि तब क्या होगा? हो सकता है कि रूस तब यूक्रेन के साथ शांति वार्ता शुरू कर दे लेकिन उस वार्ता में उन क्षेत्रों का तो कोई प्रतिनिधि होगा ही नहीं जिनका रूस में विलय का दावा किया गया है। यही नहीं अगर रूस की ओर से जीते गये क्षेत्रों को उसके अधिकार क्षेत्र वाला मान लिया जाये तो फिर इस बात की प्रबल संभावना है कि कोई भी देश जीते हुए इलाकों को छोड़ना नहीं चाहेगा।
जरा इतिहास की ओर चलें तो आपको बता दें कि साल 1935 में, बेनिटो मुसोलिनी के शासन के तहत इटली ने इथोपिया पर हमला कर दिया था। तब ‘लीग ऑफ नेशंस’ और अमेरिका ने हमले की निंदा की थी और इथोपिया के लिए अपने समर्थन का ऐलान किया था। इटली पर समन्वित आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए गए थे। मगर ब्रिटेन और फ्रांस के विदेश मंत्रियों ने युद्ध खत्म करने के लिए मुसोलिनी के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया था। इसके तहत इथोपिया ने अपना अधिकांश क्षेत्र इटली को सौंप दिया और मुसोलिनी को देश के बाकी हिस्सों पर आर्थिक नियंत्रण सौंप दिया। जब यह समझौता सार्वजनिक हुआ तो दुनिया भर के लोगों ने इसकी सराहना नहीं की बल्कि उन्होंने माना कि हमलावर देश इटली को पुरस्कृत किया जा रहा है, क्योंकि उसने युद्ध भूमि में जीत हासिल की है जो आक्रमण का विरोध करने के सिद्धांत के खिलाफ है।
इसका विरोध इतना प्रचंड था कि ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों को अपनी योजना त्यागनी पड़ी और दोनों देशों के विदेश मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा। इसके एक महीने बाद अमेरिका ने इटली को हथियारों की बिक्री पर लगी रोक को हटा दिया और लीग ऑफ नेशंस ने प्रतिबंध खत्म करने के लिए मतदान किया। हालांकि, अमेरिका, सोवियत संघ और कुछ अन्य देशों ने पूर्वी अफ्रीका में इटली के साम्राज्य को मान्यता देने से इनकार कर दिया। इसके बाद होंडुरास, निकारागुआ, चिली, वेनेजुएला, स्पेन और हंगरी ने लीग ऑफ नेशंस को छोड़ दिया। डेनमार्क, स्वीडन, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड और बेल्जियम ने कहा कि वे अब लीग की सामूहिक सुरक्षा में भाग नहीं लेंगे। इसका अर्थ यह था कि अगर हिटलर के शासन वाले जर्मनी, जैसे देशों की मांग को मानेंगे तो आप अकेले रह जाएंगे। इसलिए अंतरराष्ट्रीय समाज के एक जिम्मेदार सदस्य बनिए। इन ऐतिहासिक घटनाओं से सबक मिलता है कि विजयी देश अपने जीते हुए इलाके छोड़ना नहीं चाहता है।
बहरहाल, जीते गये क्षेत्रों को मान्यता नहीं देना इसलिए जरूरी है क्योंकि विजेता को जंग में जीत के बाद इलाकों पर कब्जा करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। अगर रूस को हथियारों के बल पर जीते हुए क्षेत्र अपने पास रखने दिए जाते हैं तो छोटे देशों को लगेगा कि उन्हें खुद को हथियारों से लैस करने की जरूरत है। हम यह फिनलैंड और स्वीडन के मामले में देख चुके हैं जिन्होंने नाटो में शामिल होने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए। युद्ध भूमि में रूस की जीत यह संदेश देगी कि ताकतवर ही सही है। यह शांतिपूर्ण और सुरक्षित भविष्य के लिए कदापि अच्छा नहीं है।
-नीरज कुमार दुबे
Big countries show attitude then existence of nations from world will end