वाल्मीकि जयंतीः शरद पूर्णिमा को जन्मे रत्नाकर बने थे महर्षि वाल्मीकि
शरद पूर्णिमा के दिन महर्षि वाल्मीकि की जयंती होती है। महर्षि वाल्मीकि का प्रारंभिक नाम रत्नाकर था। इनका जन्म पवित्र ब्राह्मण कुल में हुआ था लेकिन दस्युओं के संसर्ग में रहने के कारण ये लूटपाट और हत्या करने लग गये थे। यही उनकी आजीविका का साधन बन गया था। इन्हें जो भी मार्ग में मिलता उसकी सम्पत्ति लूट लिया करते थे। एक दिन रत्नाकर की भेंट देवर्षि नारद से हो गई। उन्होंने नारद जी से कहा, “तुम्हारे पास जो कुछ है उसे निकालकर रख दो, नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।“
देवर्षि नारद ने कहा, ''मेरे पास इस वीणा और वस़्त्र के अतिरिक्त है ही क्या? तुम लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो?” देवर्षि की कोमल वाणी सुनकर रत्नाकर का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। उन्होंने कहा- “भगवान ! यही मेरी आजीविका का साधन है। इसके द्वारा मैं अपने परिवार का भरण -पोषण करता हूं।'' देवर्षि बोले- “तुम जाकर पहले परिवार वालां से पूछ आओ कि वे तुम्हारे द्वारा केवल भरण-पोषण के अधिकारी हैं या तुम्हारे पाप कर्मों में भी हिस्सा बटायंगे। तुम विष्वास करो कि तुम्हारे लौटने तक हम कहीं नहीं जायेंगे। इतने पर भी यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मुझे इस पेड़ से बांध दो।” देवर्षि को पेड़ से बांधकर रत्नाकर अपने घर गये और अपने परिजनों से पूछा कि,”तुम लोग मेरे पापों में भी हिस्सा लोगे या मुझसे केवल भरण पोषण ही चाहते हो। सभी ने एक स्वर में कहा, हम तुम्हारे पापों के भागी नहीं बनेंगे। तुम धन कैसे लाते हो यह तुम्हारे सोचने का विषय है।''
अपने परिजनों की बात को सुनकर रत्नाकर के हृदय में आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल में जाकर देवर्षि के बंधन खोले और विलाप करते हुए उनके चरणों में गिर पड़े। उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ। नारद जी ने उन्हें धैर्य बंधाया और राम नाम के जप का उपदेश दिया, किंतु पूर्व में किये गये भयंकर पापों के कारण उनसे राम नाम का उच्चारण नहीं हो पाया। तब नारद जी ने उसे मरा -मरा जपने के लिये कहा। बार-बार मरा -मरा कहने के कारण वह राम का उच्चारण करने लग गये ।
नारद जी का उपदेश प्राप्त करके रत्नाकर वाल्मीकि बन कर राम नाम जप में निमग्न हो गये। हजारों वर्षों तक नाम जप की प्रबल निष्ठा ने उनके सभी पापों को धो दिया। उनके शरीर पर दीमकों ने अपनी बांबी बना दी। दीमकों के घर को वाल्मीक कहते हैं उसमें रहने के कारण ही इनका नाम वाल्मीकि पड़ा। ये विश्व में लौकिक छंदों के आदि कवि हुए। वनवास के समय भगवान श्रीराम ने इन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। इन्हीं के आश्रम में ही लव और कुश का जन्म हुआ था। वाल्मीकि जी ने उन्हें रामायण का गाना सिखाया। इस प्रकार नाम जप और सत्संग के प्रभाव के कारण तथा अत्यंत कठोर तप से रत्नाकर दस्यु ,महर्षि वाल्मीकि हो गये।
सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में ही वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायाण से पता चलता है कि उन्हें ज्योतिष विद्या का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त था। महर्षि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण में अनेक घटनाओं के समय सूर्य चंद्र तथा अन्य नक्षत्ऱ की स्थितियों का वर्णन किया है। वाल्मीकि जी को भगवान श्रीराम के जीवन में घटित प्रत्येक घटना का पूर्ण ज्ञान था। रामचरितमानस के अनुसार जब श्रीराम वाल्मीकि जी के आश्रम गये तो वह आदिकवि के चरणों में दंडवत हो गये और कहा कि ,”तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा बिस्व बदर जिमि तुमरे हाथा।” अर्थात आप तीनों लोको को जानने वाले स्वयं प्रभु हैं। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है।
महर्षि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण के माध्यम से हर किसी को सदमार्ग पर चलने की शिक्षा दी है। रामायण में प्रेम, त्याग, तप व यश की भावनाओं को महत्व दिया गया है। महर्षि वाल्मीकि जी का कहना है कि किसी भी मनुष्य की इच्छाशक्ति अगर उसके साथ हो तो वह कोई भी काम बड़ी आसानी से कर सकता है। इच्छाशक्ति और दृढ़संकल्प मनुष्य को रंक से राजा बना देती है। जीवन में सदैव सुख ही मिले यह दुर्लभ है। उनका कहना है कि दुख ओैर विपदा जीवन के दो ऐसे अतिथि हैं जो बिना निमंत्रण के ही आते हैं। माता पिता की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन जैसा दूसरा धर्म कोई भी नहीं है। इस संसार में दुर्लभ कुछ भी नहीं है अगर उत्साह का साथ न छोड़ा जाये। अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। वह सोने को भी मिट्टी बना देता है।
- मृत्युंजय दीक्षित
Born on sharad purnima ratnakar became maharishi valmiki