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दीपावली के एक महीने बाद मनाते हैं बूढ़ी दीवाली

दीपावली के एक महीने बाद मनाते हैं बूढ़ी दीवाली

दीपावली के एक महीने बाद मनाते हैं बूढ़ी दीवाली

इस पारम्परिक आयोजन से जुड़ी किवदंतियां रामायण एवं महाभारत के रास्तों से निकली हैं। पहाड़ी इलाकों में राम के अयोध्या लौटने की खबर देर से पहुंची तब तक देश दीपोत्सव मना चुका था फिर भी पहाड़ी बाशिदों ने उत्सव मनाया नाम पड़ गया बूढ़ी दीवाली। दूसरा संदर्भ परशुराम द्वारा बसाई, पहाड़ी काशी, निरमंड (कुल्लू) से जुड़ा है। परशुराम अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर थे। एक दैत्य ने सर्पवेश में आक्रमण किया तो परशुराम ने अपने परशु अस्त्र से उसे खत्म किया। लोगों द्वारा खुशी मनाना स्वाभाविक रहा, हर वर्ष आयोजन शुरू हो गया। 

निरमंड व शिमला के आयोजनों में, अभिमन्यु द्वारा चक्रव्यूह भेदने के दृश्य ख़ास अंदाज में अभिनीत करते हैं। लोग, अखाड़े में रस्सियों का एक घेरा बनाए थामे रहते हैं, बीच में एक व्यक्ति हाथ में लाठी थामे रहता है। निश्चित समय पर इशारे से घेरा तंग किया जाता है, बीच में खड़े ‘अभिमन्यु’ को जकड़ने की कोशिश होती है, अभिमन्यु घेरा तोड़कर सफल होकर दिखाता है। कई बार दोहराए इस चक्रव्यूहिक आयोजन में प्रतिभागी जख्मी भी होते हैं मगर उल्लास के वातावरण में किसे परवाह होती है। इससे पहले अमावस की रात, लकड़ी एकत्र कर, अग्नि प्रज्वलित कर पूजन करते हैं। पांडव कौरव युद्ध आधारित, नृत्य खेल ठोडा अभिनीत किया जाता है। पांडव मुकाबला जीतकर विजयोत्सव मनाते हैं।

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सिरमौर में मूल दीवाली के दिनों में ग्रामीण क्षेत्रों में काम की अधिकता होती है। बाशिंदों को, घासनियों (घास वाली जगहें) से घास काटकर सर्दी के लिए रखना होता है। मक्की की कटाई और अरबी की खुदाई शबाब पर होती है। अदरक बाजार पहुंचाना होता है, ऐसे में दीवाली मनाने की फुरसत कम होती है। यहां कुछ क्षेत्रों में पांडवों की विजय को ही बूढ़ी दीवाली के रूप में मनाया जाता है। कहीं कहीं तो बूढ़ी दीवाली की मस्ती कई दिन तक जवान रहती है। इन उत्सवी दिनों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रहती है। आग के गिट्ठे के हर तरफ नाटी (लोकनृत्य) देर रात तक नचाती है। ढोल, करनाल, दुमालू व हुड़क जैसे वाद्य यंत्रों  के संगीत में डूबी शिरगुल देव की गाथा गाई जाती है। रासा, स्वांग, करयाला में रचा कार्यक्रम देर रात तक चलता है। यहां का मशाल जुलूस और रासा नृत्य जिसमें कोई भी नाच सकता है देखना एक अविस्मरणीय अनुभव है। 

अमावस्या के मौके पर सफ़ेद रंग की पोशाक जिस पर रंगीन फूल काढ़े होते हैं, पहनकर बूढ़ी दीवाली का मुख्य नृत्य ‘बूढ़ा नृत्य’ करते हैं। इस नृत्य में वही लोग हिस्सा ले सकते हैं जिन्हें यह नृत्य आता है। कबायली संस्कृति में वाद्य यंत्र बजाने की परंपरा अनुसार हुड़क बजाई जाती है। लोक मान्यता है कि अमावस्या की रात, मशाल जुलूस निकालने से नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता, समृद्धि के द्वार खुलते हैं। तीसरे दिन (पड़वा को) देवता पूजा होती, बैलों को अनाज देते, सींगों में तेल लगाते हैं। खलियानों में रोशनी की जाती है। शिशु जन्म हो तो जश्न दोगुना हो जाता है। बेटियां मायके आती हैं, उन्हें मूढ़ा ( भुना मक्की, गेंहू) व अखरोट दिए जाते हैं। इस मौक़े पर मार्मिक गीत ‘भिउरी’ ज़रूर गाते हैं। दीवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, मसाले मिली, भरवीं रोटी तवे पर सेककर, फिर तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाई जाती है। विशिष्ट स्वाद वाले पहाड़ी पकवान  असक्ली, गुलगुले, सिडकु, पटान्डे बनाए और खिलाए जाते हैं। 

इस अवसर पर, पुरेटुआ का गीत गाना जरूरी समझा जाता है। गीत में समझाया गया है कि त्योहार के अवसर पर घर से बाहर नहीं जाना चाहिए। पुरेटुआ ने अपनी वीरता के अभिमान में ऐसा किया और मारा गया। सिरमौर में कई जगह स्वांग (लोक नाटय) का आयोजन होता है। हालांकि रोज़गार व अन्य सामाजिक बदलावों के कारण कुछ क्षेत्रों में नई पीढ़ी की सहभागिता कम होती जा रही है, लेकिन ग्रामीण अंचल के वरिष्ठ एवं स्थानीय बाशिंदे तन्मयता से इस पारंपरिक व सांस्कृतिक आयोजन का हिस्सा बनते हैं।

बूढ़ी दीवाली, दीपावली के लगभग एक माह बाद पड़ने वाली अमावस्या को, हिमाचल प्रदेश के सिरमौर व सोलन के कुछ क्षेत्र, कुल्लू के बाहरी व भीतरी सिराज क्षेत्र, शिमला के ऊपरी इलाके व समूचे किन्नौर और उतराखंड के जौनसार क्षेत्र में बूढ़ी दीवाली का आयोजन होता है। इन क्षेत्रों में इस आयोजन की अनूठी परम्पराएं जारी हैं। इस बरस यह आयोजन 24 नवम्बर को शुरू होगा।

- संतोष उत्सुक

Budhi diwali is celebrated one month after diwali

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