बाल दिवस मनाना तभी सार्थक होगा, जब गरीब बच्चे मजदूरी नहीं बल्कि शिक्षा ग्रहण करेंगे
नौनिहालों के प्रति चाचा नेहरू का प्रेम जगजाहिर रहा। इसी नाते उनके जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप मनाया जाना आरंभ हुआ। अब ये सामान्य दिवस नहीं, बल्कि राष्ट्रीय त्यौहार के तौर पर हम मनाते हैं। इस जश्न के साथ ही बाल अधिकारों की बदनुमा तस्वीरें भी सामने आती हैं जो साल दर साल विकराल रूप ले रही है। सामान्य अपराधों के मुकाबले, बाल अपराध कई गुणा बढ़े हैं। एनसीआरबी की सालाना रिपोर्ट में बीते कुछ सालों से बच्चों से असंख्य अपराध चिंतित करते हैं। इसमें सरकारों को दोष दें, या खुद की लापरवाही? कोई तय नहीं कर पा रहा। आज बेशक बाल दिवस है, घरों से बाहर निकलें तो आपको आज भी हजारों-लाखों की संख्या में नौनिहाल ढाबों-दुकानों व कारखानों में बर्तन मांजते दिखेंगे, चौराहे पर गुब्बारे आदि बेचते मिलेंगे और रेड लाइट पर भीख मांगते भी आपको दिखाई देंगे। इन बच्चों को ये भी नहीं पता कि आज बाल दिवस है और उसके मायने क्या हैं। दरअसल, ये तस्वीरे बताती हैं कि बाल अधिकारों की किस कदर धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।
आर्टिकल 21 में बच्चों के अधिकारों का संपूर्ण जिक्र है। जागरूकता की कमी कह लो, या फिर कुछ और लोग ध्यान नहीं देते। अगर हम बच्चों के अधिकारों का इस्तेमाल करें, तो किसी की कोई मजाल नहीं कि उनके बचपन को रौंद पाए, सुध ही लेने वाला कोई नहीं है। जुबानी और कागजी कार्रवाई की कमी नहीं है। आजादी से लेकर आज तक सर्व शिक्षा अभियान जैसे जरूरी अधिकारों का इनके साथ घोर मजाक होता आया है। करोड़ों बच्चे आज भी निरक्षर हैं, शिक्षा से दूर हैं। सर्व समानता शिक्षा से ही बाल दिवस के मायने समझे जाएंगे। समाज के उच्च वर्ग ने गरीब बच्चों को शिक्षा से एक तौर पर बहिष्कृत ही कर दिया है। ऐसे में शोषित बच्चों के लिए बाल दिवस महज मजाक माना जाए। बच्चों की खैरियत हुकूमतों से ज्यादा सामाजिक स्तर पर की जा सकती है। लेकिन भागदौड़ भरी जिंदगी में कोई ध्यान नहीं दे पाता। जबकि, ध्यान देनी की अति आवश्यकता है। हम अपने प्रयासों से अगर एकाध बच्चों का जीवन भी सुधार पाएं, तो हमारे जीवन के मायने पूरे होंगे। इसकी शुरुआत अपने आसपास से कर सकते हैं। गरीब बच्चों को पड़ोस की आंगनबाड़ी तक तो पहुंचा ही सकते हैं। जहां, फ्री शिक्षा और खाना मुहैया होता है।
बाल अधिकारों पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की हालिया रिपोर्ट्स तो और भी डरावनी है। इससे पता चलता है कि देश में हर वर्ष हजारों की तादाद में बच्चे गायब हो रहे हैं। 53.22 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी रूप में यौन शोषण का शिकार हो रहे हैं। इस शोषण के दायरे में सभी बच्चे आ जाते हैं। बच्चों के यौन शोषण के खतरे जितनी तंग बस्तियों में हैं, उससे अधिक कहीं आलीशान इमारतों और बंगलों में हैं। निश्चित रूप से मौजूदा वक्त में हिंदुस्तान तरक्की कर रहा है, लेकिन बचपन पिछड़ता जा रहा है। गरीब बच्चों के चेहरे से मासूमियत खत्म होने लगी है। देश की आर्थिक तरक्की के बाद भी झुग्गियों और असंगठित श्रमिकों के बच्चों के रहन-सहन में कोई बदलाव नहीं आया है। कॉलोनियों के बाहर पड़े कूड़ेदानों में जूठन तलाशते मासूमों और पन्नी बटोरने वालों की संख्या करोड़ों में है। मां-बाप के प्यार से वंचित, सरकारी अनुदानों और राहतों की छांव से विभिन्न कारणों से दूर इन बहिष्कृत बच्चों को दो वक्त की रोटी तक नसीब नहीं है।
गौरतलब है कि हमारी तरक्की बच्चों के सुनहरे भविष्य पर ही टिकी होती हैं। हिंदुस्तान के शहरी, ग्रामीण और अमीर-गरीब की विभाजक रेखा ने बच्चों को दो हिस्सों में बांट दिया है। पहली श्रेणी वह है जो सुबह तैयार होकर, टिफिन लेकर स्कूल के लिए रवाना होती है, तो दूसरी कतार में वह बच्चे हैं, जिनको सुबह से ही दोपहर की एक अदद रोटी की तलाश में घरों से बाहर निकलना पड़ता है। दोनों वर्गों के बच्चे सुबह घरों से बाहर जरूर निकलते हैं पर राहें दोनों की जुदा होती हैं। तो जाहिर-सी बात है कि दूसरी राह में जाने वाले बच्चों के लिए बाल दिवस के लिए कोई महत्व नहीं है। बाल दिवस पर स्कूली बच्चे बहुत खुश दिखाई देते हैं। वे सज-धज कर अपने स्कूलों-शिक्षण संस्थाओं में जाते हैं, वहां विशेष कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं। लेकिन गरीबों के बच्चों को रूटीन वही रहता है। अच्छा तब होगा, जब इस दिन को पूरे देश के सभी बच्चे एक साथ और एक जैसे मनाएं। इसके लिए इच्छाशक्ति की जरूरत है। हम सर्व शिक्षा अभियान की सफलता की बात तो करते हैं, पर सच्चाई हकीकत से कोसों दूर और जुदा होती है।
बच्चों के बचपन को बचाने के लिए हम सबको आगे आना होगा। सरकारों से लड़कर उन्हें उनका हक दिलवाना होगा। ये काम सामाजिक स्तर पर जितना अच्छे से हो सकेगा, उतना सरकारी स्तर पर नहीं? सरकारें आपको अधिकार, कानून, सुविधाएं व सहुलिहतें ही मुहैया करवाएंगी। इन्हें पाना और दिलवाना हम आपकी जिम्मेदारी होगी। मौजूदा आंकड़ों पर गौर करें तो इस समय लगभग 25 करोड़ बच्चे बाल श्रम की भट्टी में तप रहे हैं। यह बच्चे चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनके लिए बाल दिवस के क्या मायने हैं? समझाना होगा, बताना होगा।
ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि बाल दिवस सभी बच्चों के लिए एक समान हो। सुविधा संपन्न बच्चे तो सब कुछ कर सकते हैं, परंतु यदि सरकार देश के उन नौनिहालों के बारे में सोचे जो गंदे नालों के किनारे कचरे के ढेर में पड़े हैं या फुटपाथ की धूल में सने होते हैं। उन्हें न तो शिक्षा मिलती और न ही बचपन की आजादी। पैसा कमाना इन बच्चों का शौक नहीं बल्कि मजबूरी होती है। वक्त का तकाजा है कि अगर हमें बाल दिवस को मनाना है तो सबसे पहले हमें गरीबी व अशिक्षा के गर्त में फंसे बच्चों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाना होगा तथा उनके अंधियारे जीवन में शिक्षा की लौ जगानी होगी। ऐसा जो करेगा, वह मंदिर बनाने से भी बड़ा पुण्य कमाएगा।
-डॉ. रमेश ठाकुर
सदस्य, राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान (NIPCCD), भारत सरकार
Celebrating children day will be meaningful when poor children will get education