राष्ट्रवादियों ने इस तरह लिख डाली थी गोवा मुक्ति की पटकथा
स्वतंत्रता प्राप्ति एवं विभाजन के पश्चात तत्कालीन रियासतों एवं स्वतंत्र प्रांतों को भारतीय संघ के तौर पर एकीकरण के ऐतिहासिक कार्य को सरदार वल्लभ भाई पटेल की दूरदृष्टि ने मूर्तरूप देने का कार्य किया। उस समय ऐसे क्षेत्र जो ब्रिटिश शासन के अधीन नहीं थे जिनमें कई देशी रियासतें शामिल थीं। इसके अलावा भारतीय उपमहाद्वीप के कई क्षेत्र यथा— गोवा, दमन-दीव, दादर एवं नगर हवेली इत्यादि सन् 1954 के पूर्व फ्रांस एवं पुर्तगाल शासन के अधीन थे। 'पुर्तगाल सरकार' इन क्षेत्रों पर अपना आधिकारिक सैन्य शासन करती थी। इस क्षेत्र का हमारे धार्मिक-पौराणिक ग्रंथों में वर्णन है। इस पावन भू-भाग का भगवान परशुराम की पुण्यभूमि 'कोंकण' के तौर पर पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। किन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि निकृष्ट, बर्बर, क्रूर अरबों-तुर्कों, मुगलों तथा अंग्रेजी परतंत्रता की बेड़ियों समेत पुर्तगाल ने इस पवित्र भूमि को अपने अधीन कर सदियों की परतंत्रता की त्रासदी में जकड़े रखा था।
जब भारतीय चेतना जगी तो लुटेरों के अत्याचारों की बुनियाद में खड़े किले पर किले ढहने लगे। और इसी क्रम में गोवा, दमन-दीव, दादर एवं नागर हवेली की स्वतंत्रता की गाथा अपने आप में स्वातंत्र्योत्तर भारत के संघर्ष की अपनी एक अलग कहानी है। उस समय जमीनी संघर्ष एवं क्रांति की चिंगारी जलाने के लिए अखण्ड भारत के मतवाले अपने प्राणों की परवाह किए बगैर स्वयं की शक्ति से स्वतंत्रता की आहुति में कूद पड़े थे।
आजाद भारत की 31 जुलाई सन् 1954 की तारीख उस स्वर्णिम अध्याय के तौर पर दर्ज है, जो अपने आप में ऐतिहासिक है। उस दिन आजाद गोमांतक दल एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में सैंकड़ों की संख्या में स्वयंसेवी कार्यकर्ता अखण्ड भारतवर्ष के दादर-नागर हवेली को पुर्तगाल शासन से मुक्त कराने के लिए आगे बढ़ चले। और रात्रि में भीषण बारिश होने के बावजूद भी— अपने अदम्य साहस व शौर्य के बलबूते पुर्तगाली सैनिकों को परास्त किया। यूँ ही 2 अगस्त सन् 1954 को दादर-नागर हवेली में भारत का तिरंगा ध्वज फहराकर पुर्तगालियों की परतंत्रता से मुक्ति मिली। और माँ भारती का ध्वज लहराने लगा।
तत्पश्चात परिस्थितियां सामान्य होने पर— 15 अगस्त सन् 1954 को वहाँ स्वतंत्रता दिवस मनाकर माँ भारती के लाड़लों ने अपने अदम्य साहस का परिचय करवाया था। तदुपरान्त संवैधानिक एवं राजनैतिक दृष्टिकोण से दादर एवं नागर हवेली को 10वें संविधान संशोधन अधिनियम 1961 के अन्तर्गत संघ शासित क्षेत्र में सम्मिलित किया गया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दृष्टि सदैव से ही महाभारत कालीन आर्यावर्त्त की पवित्र पुण्य भूमि के स्वरूप को मानस पटल पर अंकित कर 'अखण्ड भारतवर्ष' के निर्माण की रही है। इसी कड़ी में जब 'गोवा' को भारतीय क्षेत्र में सम्मिलित करने के लिए पंडित नेहरू को राष्ट्रवादियों द्वारा सशस्त्र हस्ताक्षेप करने को कहा गया था— तो उन्होंने इससे इंकार कर दिया था। नेहरू द्वारा इस प्रस्ताव को अस्वीकृत करने के बाद भी माँ भारती के अखण्ड स्वरूप की झाँकी ह्रदय में बसाए हुए— सपूतों ने अपना लक्ष्य सुनिश्चित कर लिया था। उन्होंने यह तय किया था कि चाहे जो हो जाए हमारी भारत माता की पुण्यभूमि के आधे इंच पर भी विदेशी सत्ता नहीं टिक सकती।
अपने इसी उद्देश्य को मूर्त रूप देने के लिए 13 जून सन् 1955 को कर्नाटक से भारतीय जनसंघ के नेता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जगन्नाथ राव जोशी ने गोवा सत्याग्रह की शुरुआत की। और 'गोवा मुक्ति अभियान' का शंखनाद कर दिया था। इस गोवा सत्याग्रह में राष्ट्रवाद की रणभेरी 'मेरा रंग दे बसंती चोला' एवं वन्दे मातरम और भारत माता के जयकारों से गूँज उठी। इस अभियान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जगन्नाथ राव जोशी के साथ लगभग 3000 की संख्या में 'गोवा मुक्ति' के लिए वीर व्रतधारी कार्यकर्ताओं का एक दल कूच करने गया था। और इस अभियान में मातृशक्तियों ने भी बढ़-चढ़कर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
इसके पूर्व 15 जून सन् 1946 को डॉ. राम मनोहर लोहिया ने गोवा की जनता को पुर्तगाल शासन से मुक्ति के लिए सभा की थी। और 18 जून सन् 1946 से सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर दिया था। इस आन्दोलन में उन्होंने गोवा के लोगों को पुर्तगाल शासन के विरुद्ध उठ खड़ा होने के लिए आह्वान किया था। इससे वहाँ के जनसामान्य में पुर्तगाल उपनिवेश के विरुद्ध क्रांति की चिंगारी सुलग चुकी थी। 15 अगस्त सन् 1955 को 'गोवा' की स्वतंत्रता के लिए किए गए सत्याग्रह में 5000 से अधिक सत्याग्रहियों पर गोवा में तैनात पुर्तगाली सेना ने गोलियां चला दी थी। इस गोलीकांड से लगभग 51 की संख्या में आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गई थी।
गोवा मुक्ति की ज्वाला धधक उठी। और गोवा के स्वातंत्र्य संघर्ष में धार्मिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक तौर पर सभी एकजुट होकर उठ खड़े हो गए। उन मतवालों के ह्रदय में स्वतंत्रता की जो क्रांति धधक रही थी, उसमें अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य अनुसार सभी ने आहुति सौंपी। इस स्वातंत्र्य यज्ञ में उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार और स्वयंसेवक सुधीर फड़के ‘बाबुजी’ ने सांस्कृतिक आधार पर एकजुटता का परिचय दिया। और लोकसंस्कृति की समरसता के आधार पर उन्होंने जनसामान्य को एकत्रित करने का अतुलनीय कार्य किया था।
हमारी प्राचीनतम् परम्परा के अनुसार मातृशक्ति जब चण्डी कि स्वरूप ग्रहण करती है तो किसी भी कार्य की पूर्णता स्वमेव सुनिश्चित हो जाती है। यह स्वातंत्र्य समर भी उस शक्ति के तपबल से परिपूर्ण रहा। गोवा मुक्ति आन्दोलन के लिए जाने वाले वीर सपूतों को सरस्वती आपटे ‘ताई’ के नेतृत्व में राष्ट्रीय सेविका समिति द्वारा महाराष्ट्र के पुणे में एकत्रित होने वाले सभी सत्याग्रहियों के भोजन आदि की व्यवस्था की जाती थी
15 अगस्त सन् 1955 के दिन जब सम्पूर्ण देश में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ स्वतंत्रता दिवस की नौवीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी। उस समय माँ भारती के लाड़ले वीर पुत्र वन्दे मातरम के जयगान के साथ गोवा की मुक्ति के लिए आगे बढ़ रहे थे। माँ भारती के वीर सपूत बर्बर पुर्तगालियों की बन्दूकों की गोलियाँ को सहज ही अपने सीने में सहन कर रहे थे। और गोवा मुक्ति के यज्ञ में आहुति बनकर वीरों की तरह आगे बढ़ रहे थे। इस सत्याग्रह में एक-दो नहीं बल्कि 51 की संख्या में वीर पुत्रों ने मां भारती की अखण्डता की बलिवेदी में 'गोवा मुक्ति' के लिए जीवन रूपी आहुति समर्पित की थी। इस सत्याग्रह में पुर्तगाली सेना की गोलियों से लगभग 300 के लगभग सत्याग्रही घायल हो गए थे। यह पुर्तगाली गोलीकांड स्वतंत्र भारत के दूसरे 'जलियांवाला बाग हत्याकांड' की भाँति ही था।
पुर्तगाली सेना की इस क्रूरता का प्रतिकार करते हुए जनसंघ की सार्वजनिक सभा में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि ''पुर्तगाली शासन, बर्बर अत्याचारों से जनता को भयभीत करके भारतीयों को गोवा में आंदोलन करने से रोकना चाहता है किंतु भारतवासी डरते नहीं हैं। वे पुर्तगाली अत्याचारों के सम्मुख किंचित भी नहीं झुकेंगे। जनसंघ इसके पश्चात बड़ी संख्या में सत्याग्रही भेज कर आंदोलन को प्रबल बनाएगा।”
उस समय जनसंघ ने 'गोवा मुक्ति' सत्याग्रह में हुई क्रूरता एवं सत्याग्रहियों की मौत पर कड़ा रुख अपनाया था और गोवा मुक्ति के लिए भारत सरकार पर कार्रवाई करने का दबाव बनाने लगा। स्वातंत्र्य वीरों की आहुति, निष्ठा, त्याग, साहस, शौर्य व जनसंघ की रणनीति ने अन्ततोगत्वा वह कर दिखलाया जिससे गोवा मुक्ति का संकल्प साकार होना था।
आगे बढ़ते हैं इतिहास की तारीख यानि— 1 सितंबर सन् 1955 को जब गोवा में भारतीय कॉन्सुलेट को बंद कर देने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा था कि “सरकार गोवा में पुर्तगाल की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं करेगी।” भारत सरकार के हस्तक्षेप के उपरांत भी जब पुर्तगाल शासन ने भारत को सौंपने से इंकार कर दिया, तो गोवा-दमन-दीव की स्वतंत्रता के लिए सरकार ने तीनों सेनाओं को सशस्त्र तौर पर कार्रवाई करने की अनुमति दे दी। भारतीय सेना ने 2 दिसंबर को ही एयर वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के नेतृत्व में ‘गोवा मुक्ति अभियान’ शुरू कर दिया गया और इस अभियान को 18 दिसम्बर को पूर्ण अमली जामा पहनाया गया जिसे 'ऑपरेशन विजय' के नाम से जाना जाता है।
भारतीय सेना ने मात्र 36 घंटों में पुर्तगाल सेना के छक्के छुड़ाकर गोवा-दमन-दीव को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान कराने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी। 19 दिसंबर सन् 1961 को भारतीय सेना ने गोवा, दमन और दीव में तिरंगा फहराया और इस प्रकार भारतीय सेना ने माँ भारती की अखण्डता के लिए बलिदान हुए राष्ट्रवादियों के संकल्प को पूर्ण कर अखण्ड स्वरूप को मानचित्र में पुनश्च अंकित करने का कार्य किया। गोवा सहित पुर्तगाल शासन के अधीन रहे राज्यों की मुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों और आजाद गोमांतक दल के कार्यकर्ताओं समेत राष्ट्रवादियों ने अपनी जो आहुति दी थी। वह पुण्याहुति स्वतंत्रता की नींव बनी और जन-जन में क्रांति की मशाल बनी जो इतिहास के सुनहरे पन्नों में आज भी धधक रही है।
आइए हम माँ भारती की अखण्डता के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले महान सपूतों के चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करें और राष्ट्र-आराधना में नित निरन्तर लगे रहें। हम यह समझें कि स्वतन्त्रता की थाती असंख्य बलिदानों से मिली थी। हम अपने महापुरुषों के बलिदानों की ज्वाला को ह्रदय में संजोकर राष्ट्र निर्माण की दिशा में अनवरत चलते रहें, जिन्होंने राष्ट्र की एकता, अक्षुण्णता और अखण्डता के लिए प्राणोत्सर्ग कर दिए।
-कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(कवि, लेखक, स्तम्भकार)
How nationalists wrote the script of goa liberation