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Gyan Ganga: प्रभु गैया चराते-चराते वृन्दावन से निकले और ताल वन में पहुँच गए

Gyan Ganga: प्रभु गैया चराते-चराते वृन्दावन से निकले और ताल वन में पहुँच गए

Gyan Ganga: प्रभु गैया चराते-चराते वृन्दावन से निकले और ताल वन में पहुँच गए

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 

प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। 

मित्रों! पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि, ब्रह्मा जी ने भगवान को प्रसन्न करने ले लिए अत्यंत नम्रता पूर्वक स्तुति की, प्रभु के परम प्रिय व्रजवासियों का गुणगान किया, उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की फिर भी जब भगवान ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की और जब कोई बात ठीक से नहीं की तब अंत में वो जगत पिता ब्रह्माजी ने श्री हरि की तीन बार प्रदक्षिणा कर अपने परम धाम सत्यलोक को प्रस्थान किया। 
आइए! कथा के अगले प्रसंग में चलें–

श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं, हे परीक्षित ! ब्रहमाजी के प्रस्थान करने के बाद कन्हैया व्रजवासियों के साथ घर लौटते हैं और मैया से कहते हैं। मैया अब हम तनिक बड़े और समझदार हो गए हैं। अब आप आज्ञा दें तो मैं गैया चराना प्रारम्भ कर दूँ

भागवतकार महर्षि व्यास जी के शब्दों में-------- 

ततश्च पौगण्डवय: श्रितौ व्रजे बभूव तुस्तौ पशुपाल सम्मतौ। 
गाश्चारयंतौ सखिभि: समं पदै: वृंदावनम पुण्यमतीव चक्रतु: ॥  

मैया बोली ठीक है, एक अच्छों सो मुहूर्त पंडित जी से निकलवा लूँ। पंडितजी मुहूर्त निकाल दियो।

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कार्तिक शुक्ल अष्टमी बुधवार मैया प्रसन्न हो गईं, बोली– कन्हैया ! कल अष्टमी है कल से तू गैया चराने जा। प्रभु इतने प्रसन्न हुए कि खुशी के मारे रात में ठीक से सो नहीं पाए। सुबह उठकर ब्राह्मणों को बुलाया स्वस्ति वाचन कराकर गो पूजन किया और समस्त ब्राह्मणों का पूजन कर खूब दान-दक्षिणा देकर आज से गोपाल बनकर गो चारण प्रारम्भ कर दिया। बोलिए----- गोपाल भगवान की जय

मेरा गोपाल गिरधारी जमाने से निराला है 
रंगीला है रसीला है न गोरा है न काला है। 
कभी सपनों मे आ जाना कभी रूपों से ललचाना 
ये तरसाने का मोहन ने निराला ढंग निकाला है। मेरा गोपाल गिरधारी-----
कभी ओखल मे बंध जाना कभी ग्वालो में जा खेले 
तुम्हारी बाललीला ने अजब धोखे में डाला है।  मेरा गोपाल गिरधारी-----
कभी वो मुसकुराता है कभी वो रूठ जाता है 
इसी दर्शन के खातिर तो बड़े नाजों से पाला है। मेरा गोपाल गिरधारी-----      
तुम्हें मैं भूलना चाहूँ मगर भूला नहीं जाता 
तुम्हारी साँवली सूरत ने कुछ जादू-सा डाला है। मेरा गोपाल गिरधारी-----      
मेरे नयनों में बस जाओ मेरे हृदय में आ जाओ 
मेरे मोहन ये मन मंदिर तुम्हारा देखा भाला है। मेरा गोपाल गिरधारी-----      
तुम्हें मुझसे हजारों हैं मगर मेरे तुम्हीं तुम हो 
तुम्हारे बिन हमारी तो न कोई सुनने वाला है। मेरा गोपाल गिरधारी-----  
    
आज गायों के पीछे-पीछे प्रभु गोपाल बने जंगल में विचरण कर रहे हैं। एक दिन तो गैया चराते-चराते वृन्दावन से निकले और ताल वन में पहुँच गए। वहाँ फलों से लदे वृक्षों को देखा, तो व्रजवासी बोल उठे, दाऊ भईया ! कितने मीठे-मीठे फल लगे हैं पर यहाँ तो एक राक्षस रहता है धेनुकासुर, उसके डर से कोई इस वन में प्रविष्ट नहीं करता है। दाऊ जी बोले— तुम लोग यहीं रुको, मैं अकेले जाकर देखता हूँ, जाकर दाऊ भैया ने ज़ोर से वृक्ष हिला डाला हजारों फल टपक पड़े। आवाज सुनकर धेनुकासुर गदहा बनकर आया और दाऊ जी को दुलत्ती मारने की चेष्टा की तो दाऊ जी ने उसके दोनों पैर पकड़कर वृक्ष में दे मारी। वृक्ष भी टूट गया और धेनुकासुर भी ठिकाने लग गया। व्रजवासियों ने जयजयकार की, खूब चकाचक फल खाए और मोटरी बांधकर घर लाए। अब प्रभु ने विचार किया फलों का दुरुपयोग हो रहा था, तो दाऊ भैया ने धेनुकासुर को ठिकाने लगाकर फलों को मुक्त किया, अब जल को दूषित करने वाला कालिय नाग है उसे मारकर भगाने का काम मुझे करना पड़ेगा। दाऊ भैया हैं शेषनाग और हमे मारना है कालियनाग, यह काम तभी हो सकता है जब दाऊ जी हमारे साथ न हो। नहीं तो हो सकता है अपनी जाति का पक्ष ले बैठें। अब एक दिन क्या हुआ कि मैया धूम-धाम से बलदाऊ जी का जन्म दिन मना रही थी और भगवान बिना बताए ग्वाल-बालों के साथ क्रीड़ा करने यमुना तट पर जा पहुंचे। गायों ने जहरीला जल पी लिया, मरणासन्न हो गईं, आंखे निकल आईं, जीभ बाहर आ गईं और मूर्छित होकर धरती पर गिर गईं। भगवान को बड़ा दुख हुआ। मेरी गो माता को कष्ट देने वाले कालिया तेरे को छोडूंगा नहीं। भगवान ने अपनी अमृतमई दृष्टि से गायों को पुन: जीवित कर दिया और कालिय नाग को दंड देने के लिए कदंब वृक्ष पर चढ़ गए। 

विलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्ण: कृष्णहिना विभु: 
तस्या विशुद्धिमन्विच्छन् सर्पं तं उदवासयत्।।        

देखिए ! तीन बार कृष्ण शब्द आया है भगवान कृष्ण ने कृष्णा मतलब काले रंग की कालिंदी मे कृष्ण अर्थात काले रंग के नाग को देखा। प्रभु ने उसे मार भगाने का संकल्प किया। मैं कृष्ण मेरी कालिंदी कृष्णा हम दोनों के बीच में तीसरा तू कालिया कहाँ से घुस आया। 

प्रेम गली अति साँकरी यामे दो न समाय। 

शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित ! कालिय नाग गरुण के भय से रमणक द्वीप छोड़कर यमुना में आ बसा था। महर्षि सौभरि के शाप के कारण गरुण यमुना में प्रवेश नहीं कर सकते थे। 

भगवान ने कालिय नाग को अभय प्रदान करते हुए कहा--- जाओ, अब तेरा शरीर मेरे चरण चिह्नो से अंकित हो गया है। इसलिए अब गरुण तुझे खाएँगे नहीं। इस प्रकार भगवान ने कालिय नाग का भी उद्धार कर दिया और अपनी प्रेयसी कालिंदी को भी विष से मुक्त किया। एक प्रसंग यह भी आता है कि भगवान ने कंदुक क्रीडा की और जानबूझकर श्रीदामा की गेंद यमुना मे फेंक दी। किन्तु यह भागवत का प्रसंग नहीं है।
शेष अगले प्रसंग में----    
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।

- आरएन तिवारी

Lord krishna came out of vrindavan while grazing cows and reached taal forest

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