चींटी के सामने इंसान (व्यंग्य)
विदेशों में किए जा रहे सर्वे, अध्ययन और योजनाएं मुझे अक्सर हैरान करती हैं। ऐसा बार बार हो रहा है। विदेशियों के ढंग निराले हैं न जाने कैसे कैसे काम करते रहते हैं। पता चला है कुछ महीने पहले हांगकांग विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने चींटियों की गणना की। हैरानी की बात है न। हमारे यहां तो बंदरों, कुत्तों की गिनती की जाती है। यह नहीं पता कि कैसे की जाती है। कुछ गलत लोग कहते हैं कि वास्तव में की नहीं जाती बलिक निपटा दी जाती है। लगता है बंदरों और कुत्तों की गणना करना मुश्किल है और इंसानों की जातीय गणना करना आसान है। वैसे तो हमारे यहां वृक्षों की गणना भी की जाती है और हर गिनती के बाद वृक्ष और हरियाली बढ़ा दी जाती है।
कुछ भी हो, मगर छोटी छोटी चींटियों की गणना की खबर सुनकर खुशी तो होती है मगर समझ नहीं आता कि दूसरे महत्त्वपूर्ण काम यह लोग क्यूं नहीं करते। इस नासमझ सवाल पर कहते हैं कि अभी तो सिर्फ वृक्षों पर रहने वाली चींटियों को ही गिना है। इसका मतलब अगर मिटटी में, धरती के अन्दर, घर, दीवारों या छतों में रहने वाली चींटियों की गिनती भी की तो ज़्यादा हैरान होना पड़ेगा और मानना पड़ेगा कि हांग कांग वालों के पास कोई ज़रूरी काम करने के लिए नहीं है। दुनिया में इतनी परेशानियां हैं, कई देश युद्ध से जूझ रहे हैं। आधी दुनिया कही जाने वाली महिलाओं की दुश्वारियां कम नहीं होती । पर्यावरण समस्याओं पर इतनी विशाल और महान बैठकों के बावजूद, दुनिया के समझदार मालिक एकमत नहीं हो रहे हैं। क्या यह ज़रूरी काम हैं।
उनका अध्ययन कहता है कि चींटियों और इंसानों में काफी मिलता जुलता है लेकिन विश्वगुरुओं के देश में ऐसा नहीं लगता। चींटियां समूह और समाज में रहती हैं, इंसान ऐसा करते हुए असामाजिक होता जा रहा है और सिर्फ स्वार्थी समूहों में रहना पसंद करता है। सभी चींटियों के पास काम है वे निरंतर मेहनत करती हैं लेकिन इंसान बिना काम व बिना मेहनत के खाना पीना जीना चाहता है। उसने साबित कर दिया है कि काम करना वाकई मुश्किल काम है। चींटियों में स्व की भावना नहीं होती, इंसान में यह भावना बहुत ज्यादा कूट कूट कर भरती जा रही है। चींटियों की व्यक्तिगत पहचान सामूहिकता में समा जाती है लेकिन हमारे यहां ज़रूरी व्यक्तिगत पहचान बनाने के लिए सामूहिकता की परवाह नहीं की जाती बलिक उसे नष्ट किया जाता है। बताते हैं चींटियों में नेतृत्व की इच्छा नहीं होती, इंसान तो ज़बरदस्ती हीरो बनना चाहता है। चींटियां क्या सभी जानवर व कीट, नैसर्गिक सहज वृति और गणितीय नियम से चलते हैं लेकिन हमारे यहां इंसानों की सहज वृति नष्ट की जा रही है। प्रवचन दिए जाते हैं कि मोहमाया छोड़ सहज वृति धारण करो लेकिन उपदेश देने वाले ही मोहमाया और मोह्काया वाले होते हैं। चींटियों में सामूहिक बुद्धिमत्ता विकसित होती है इंसान में सामूहिक बुद्धिमत्ता को सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक वृतियों के माध्यम से कुत्सित किया जा रहा है।
कितना दिलचस्प है कि किसी भी तरह की चींटियां कभी ट्रैफिक जाम में नहीं फंसती, उनमें फेरमोन्स रसायन के कारण ऐसा होता है लेकिन इंसानों के हारमोन्स रसायन ऐसे होने लगे हैं कि हमेशा ट्रैफिक जाम में फंसा रहता है।
उसे कभी पता नहीं चलता कि गाड़ी चलाने के नियम क्या हैं। कहते हैं चींटियां, पृथ्वी को जिलाए रखने में खासी भूमिका निभाती हैं मगर इंसान तो पृथ्वी को जलाने में व्यस्त है। इटली और स्पेन जैसे छोटे देश भी अजीब ओ गरीब काम कर रहे हैं। वे चींटियों द्वारा बनाई सैंकड़ों किलोमीटर की विशाल कालोनी को बनी रहने दे रहे हैं इधर हमारे इंसानों को इंसानों की कालोनियां बसाने का बड़ा शौक है।
हम हाथी नहीं हैं कि सूंड में चींटी को घुसने देंगे। हम बहुत शातिर, होशियार और खतरनाक जानवर से भी तेज़ हैं। हम हैं, सृष्टि की अनूठी, अनुपम कृति। चींटियों को रसोई से भगाने के लिए कैमिकल प्रयोग करते हैं वह अलग बात है कि अपने मनोरथ पूरे करने के लिए उन्हें आटा भी खिलाते हैं। हम व्यक्तिवादी, लालची और स्वार्थी इंसानों के सामने चींटियों की क्या औकात।
- संतोष उत्सुक
Man in front of ant