स्वाधीनता आंदोलन में त्याग, बलिदान और साहस की प्रतीक बन गई थी मातृशक्ति
प्रत्येक कालखंड में मातृशक्ति ने भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चली है अपितु अनेक अवसर पर अग्रणी भूमिका में भी रही है। आज जबकि समूचा देश भारत के स्वाधीनता आंदोलन का अमृत महोत्सव मना रहा है तब मातृशक्ति के योगदान/बलिदान का स्मरण अवश्य करना चाहिए। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के पृष्ठ पलटेंगे और मातृशक्ति की भूमिका को देखेंगे तो निश्चित ही हमारे मन गौरव की अनुभूति से भर जाएंगे। भारत के प्रत्येक हिस्से और सभी वर्गों से, महिलाओं ने स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लिया। अध्यात्म, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय होने के साथ ही क्रांतिकारी गतिविधियों में भी महिलाएं शामिल रहीं। यानी उन्होंने ब्रिटिश शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और ‘स्व’ तंत्र की स्थापना के लिए प्रत्येक क्षेत्र से भारत के स्वर एवं उसके संघर्ष को बुलंद किया। आंदोलन के कुछ उपक्रम तो ऐसे रहे, जिनके संचालन की पूरी बागडोर मातृशक्ति के हाथ में रही। भारतीय स्वाधीनता संग्राम का एक भी अध्याय ऐसा नहीं है, जिस पर मातृशक्ति के त्याग, बलिदान और साहस की गाथाएं अंकित न हो।
स्वतंत्रता का समर, वैसे तो तब से ही प्रारंभ हो गया था, जब पहली बार भारतवर्ष के एक छोटे-से हिस्से पर विदेशी आक्रांताओं ने कब्जा किया। परंतु इस संघर्ष का महत्वपूर्ण पड़ाव रहे 1857 के स्वातंत्र्य समर में रानी लक्ष्मीबाई जैसा नेतृत्व चमकती तलवार की तरह सामने आता है। उनके साथ इस संघर्ष में कदम से कदम मिलाने वाली झलकारी बाई जैसी वीरांगना के साहस के आगे ब्रिटिश सैनिक पानी माँगते नजर आए। वहीं, मध्य प्रदेश के सिवनी जनपद में जन्मी और रामगढ़ की रानी अवंतीबाई लोधी की तलवार की धार के सामने अंग्रेज टिक नहीं सके। अंग्रेजी पलटन भाग खड़ी हुई। जिस अंग्रेज कैप्टन वाडिग्टन ने रानी के सामने युद्ध के मैदान में घुटने टेककर प्राणों की भीख माँगी, बाद में रीवा नरेश के साथ मिलकर धोखे से रानी अवंतीबाई पर हमला बोला। अंतत: रानी अवंतीबाई ने अंग्रेजों के हाथ आने की अपेक्षा रणक्षेत्र में अपने प्राणों की आहुति दे दी। रानी अवंतीबाई का स्मरण इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि उन्होंने न केवल स्वयं स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया अपितु मध्य प्रदेश के अन्य राजाओं एवं जागीरदारों को भी स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए तैयार किया। उनके प्रयासों से शंकरशाह-रघुनाथशाह, उमराव सिंह लोधी, बहादुरसिंह लोधी, जगत सिंह, किशोर सिंह लोधी, कर्णदेव, ठाकुर सरयूप्रसाद सहित अन्य राजा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उठ खड़े हुए।
पंजाब के कपूरथला में जन्मी राजकुमारी अमृत कौर उन नायिकाओं में शामिल हैं, जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष किया और स्वाधीन भारत के नवनिर्माण का दायित्व भी निभाया। अमृत कौर चाहती तों आलीशान महल में सुख से जीवन व्यतीत कर सकती थीं। परंतु, महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद उन्होंने राजमहल का सुख छोड़कर कंटक पथ को चुनना स्वीकार किया। नमक सत्याग्रह-1930 और भारत छोड़ो आंदोलन-1942 में उनकी भूमिका नेतृत्वकारी रही, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया। स्वतंत्र भारत की सरकार में उन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसी विश्व स्तरीय स्वास्थ्य संस्था की स्थापना का श्रेय देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री अमृत कौर को ही है। उन्होंने दुनियाभर से एम्स के लिए धन एकत्र किया। यहाँ तक कि अपना शिमला का घर भी दान दे दिया। वहीं, नागालैण्ड में भी एक चिंगारी चमक रही थी- रानी गाइदिन्ल्यू। कतिपय कारणों से उनका संघर्ष-समर्पण शेष भारत के लिए अल्पज्ञात रहा। परंतु अब देश उनके बारे में जानने लगा है। मात्र 13 वर्ष की उम्र में ही रानी गाइदिन्ल्यू अंग्रेजों के सब प्रकार के षड्यंत्र के विरुद्ध डटकर खड़ी हो गईं। नागालैण्ड में ब्रिटिश सरकार के सहयोग से ईसाई मिशनरीज नागाओं का जबरन कन्वर्जन कर रहे थे अैर उन पर अपनी जीवनशैली थोप रहे थे। स्व-शासन एवं स्वधर्म के संदर्भ में रानी गाइदिन्ल्यू कहती थीं- “धर्म को खो देना, अपनी संस्कृति को खो देना है। अपनी संस्कृति को खोना यानी अपनी पहचान को खोना”। रानी गाइदिन्ल्यू ने 17 वर्ष की अल्पायु में ही अपने अनुयाइयों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ गोरिल्ला युद्ध छेड़ कर उन्हें पराजित किया। 1942 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। भारत की स्वतंत्रता के बाद ही रानी गाइदिन्ल्यू को जेल से मुक्ति मिली।
ब्रिटिश अधिकारियों ने स्वप्र में भी यह कल्पना नहीं की होगी कि भारत में उनका वास्ता इतनी साहसी महिलाओं से पड़ेगा। उन्हें शायद ही इसका अंदाजा रहा हो कि महलों से लेकर साधारण घरों की महिलाएं एक-दूसरे का हाथ पकड़कर ब्रिटिश क्राउन की जड़ों को हिला देंगी। धरती पर जिस सत्ता का सूरज नहीं डूबता था, उसको दिन में तारे दिखाने का कार्य भारत के वीरांगनाओं ने किया। अंग्रेजों का यह पूर्वाग्रह भली प्रकार दूर हो गया कि भारत में महिलाएं घूंघट में रहती हैं और उनकी भूमिका सिर्फ चूल्हे-चौके तक सीमित है। भारत की बेटियां तो सत्ता के समस्त सूत्र अपने हाथ में संभाल रही थीं। रणक्षेत्र में चण्डी बनकर अरिदल का संहार कर रही थीं। जो माँ चौके-चूल्हे तक सीमित रहकर परिवार का पोषण करती है, वहीं समाज के पोषण की बागडोर भी संभाल रही है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जहाँ जैसी भूमिका, वहाँ मातृशक्ति का वैसा अवतार दिखा।
अपने प्राणों की किंचित भी चिंता किए बगैर क्रांति जैसे कठोर संकल्प को निभाने का कार्य भी भारत की मातृशक्ति ने किया। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी दुर्गा भाभी का नाम तो सबको स्मरण रहता ही है। चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसे यशस्वी क्रांतिकारियों का सहयोग उन्होंने किया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को जेल से मुक्त कराने के लिए उन्होंने बम की फैक्ट्री ही बना दी। दुर्गा भाभी की भाँति ही क्रांति के कठोर पथ पर अनेक वीरांगनाएं निकली थीं, जिनमें बंगाल की बेटियों की संख्या अधिक रही। बीना दास, प्रीती लता, उज्ज्वला मजूमदार, कल्पना दत्ता, चारूशिला देवी, टुकड़ीबाला, मीरा दत्त, रेणु सेन, वनलतादास गुप्ता, शांति घोष, सुनीति चौधरी, शोभारानी दत्त और सुहासिनी गांगुली सहित अनेक नाम हैं, जिनके बलिदान के कारण आज हम स्वतंत्रता का उत्सव मना पा रहे हैं। क्रूर अंग्रेज अफसरों के सामने पिस्तौल तानकर खड़े होने के लिए जिस साहस की आवश्यकता होती थी, वह इन वीरांगनाओं में कूट-कूटकर भरा हुआ था। क्रांति का कठोर प्रशिक्षण प्राप्त किया, अंग्रेजों का संधान किया, अंधेरी कोठरी की यातनाएं भोगी और प्राणोत्सर्ग भी किया परंतु अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के प्रयास नहीं छोड़े। मैडम भीकाजी कामा ने तो निष्कासित जीवन व्यतीत करते हुए विदेश में भारत की लड़ाई को जीवित रखा। विदेशी धरती पर पहली बार राष्ट्रीय ध्वज को फहराने का अभूतपूर्व कार्य मैडम भीकाजी कामा ने किया। यानी मातृशक्ति जहाँ रहीं, वहाँ से उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता के प्रयास किए।
आंध्र प्रदेश की दुर्गाबाई देशमुख का योगदान कैसे भूल सकते हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अपने बहुमूल्य आभूषण महात्मा गांधी को समर्पित कर दिए। एक स्त्री को अपने विवाह की निशानियां कितनी प्रिय होती हैं, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। परंतु, दुर्गाबाई ने स्वदेशी आंदोलन में अपने विवाह के सभी विदेशी कपड़े जला दिए। इसी तरह, प्रसिद्ध उद्योगपति जमनालाल बजाज की पत्नी श्रीमती जानकी देवी बजाज ने अपने घर की सभी विदेशी वस्तुओं को जला दिया था। मानो, मातृशक्ति में स्वदेशी आंदोलन की पवित्र अग्नि में विदेशी शासन को स्वाह करने की होड़ लगी हो। क्रांतिकारी सुशीला दीदी ने भी तो काकारी कांड के प्रकरण में हो रहे व्यय का प्रबंध करने के लिए अपने सभी आभूषण दान कर दिए थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर कितनी ही महिलाएं और युवतियां अपने आभूषण दान करने के लिए एक पैर पर दौड़ पड़ी थीं। नेताजी ने जिस आजाद हिंद फौज का गठन किया, उसमें महिलाओं की एक पूरी टुकड़ी थी- रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट। कैप्टन लक्ष्मी सहगल को इस रेजीमेंट का कमांडर बनाया गया था। वहीं, बहुत चाहते हुए भी इंदुमति चटगाँव शस्त्रागार हमले में प्रत्यक्ष शामिल नहीं हो पायीं तो उन्होंने हमले के मामले में बंदी क्रांतिकारियों के मुकदमे की पैरवी के लिए बंगाल के कोने-कोने और दूसरे प्रांतों में जाकर चंदा एकत्र किया।
स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लेकर अपना जीवन धन्य करने की प्रतिस्पर्धा मातृशक्ति के बीच जोरों पर थी। प्रत्येक जाति, संप्रदाय, क्षेत्र एवं वर्ग से महिलाएं आगे आईं। वारांगना से वीरांगना बनने के प्रेरक प्रसंग भी सामने आए। ऐसी नायिकाओं में प्रमुख नाम है-अजीजन बाई। कानपुर के कोठे की नर्तकी अजीजन बाई देहव्यापार से जुड़ी थी। लेकिन जब कानपुर क्रांति का प्रमुख केंद्र बन गया, तब अजीजनबाई के जीवन में भी परिवर्तन आया। विलासिता पूर्ण जीवन त्यागकर उन्होंने राष्ट्रसेवा का संकल्प लिया। क्रांति नायक तात्या टोपे के कहने पर अजीजनबाई ने अपनी समूची प्रतिभा का उपयोग भारत के स्वाधिनता आंदोलन के लिए किया। मस्तानी मंडली का गठन किया और इससे जुड़ी सभी महिलाओं को स्वयं ही प्रशिक्षित किया। अंग्रेजों की छावनी में घुसकर नाच-गाकर गोपनीय सूचनाओं को लाना आसान कार्य नहीं था। मस्तानी मंडली की महिलाएं पुरुष भेष धारणकर युद्ध के मैदान में भी मोर्चा लेती थीं। अंग्रेजों ने यूँ ही अजीजनबाई को गोली से नहीं उड़ाया था। अजीजनबाई से ब्रिटिश सरकार भयाक्रांत हो गई थी।
स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी सहभागिता एवं अग्रणी भूमिका से मातृशक्ति ने भारतीय दर्शन को सिद्ध करते हुए समूची दुनिया के सामने घोषित कर दिया कि वह शक्तिस्वरूपा है। जैसे आदिशक्ति ने समय-समय पर विभिन्न रूप लेकर अनेक अन्यायी और अत्याचारियों का विनाश किया, वैसे भूमिका वह अवसर आने पर आधुनिक भारत में भी निभाती रही है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी जीवन-आहुति देने वाली महिलाओं की एक लंबी श्रृंखला है। संन्यासी विद्रोह की देवी चौधरानी, चुआड़ की रानी शिरोमणि, कित्तूर की रानी चेनम्मा, शिवगंगा राज्य की विद्रोही बेलुनाचियार, भारत छोड़ो आंदोलन की प्रमुख महिला नेतृत्व अरुणा आसफ अली, टीटागढ़ कांड की सरोजदास चौधरी और भूमिगत स्वयंसेवक दल की संस्थापक सुचेता कृपलानी, रानी ईश्वरी कुमारी, ननीबाला, पार्वती देवी, प्रफुल्ल नलिनी बह्म, मणिबेन वल्लभभाई पटेल, माया घोष, मृदुलाबेन साराभाई, सरलादेवी साराभाई, सावित्री देवी, हजरत महल और माता स्वरूपरानी ऐसे ही प्रमुख मातृशक्ति के नाम हैं, जिनका स्मरण आज की पीढ़ी में ऊर्जा, साहस और समर्पण का संचार कर सकता है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि मातृशक्ति के बलिदान के कारण भी भारत की स्वाधीनता संभव हो सकी। भारत के स्वाधीनता आंदोलन का मूल्यांकन मातृशक्ति की भूमिका को अनदेखा करके नहीं किया जा सकता।
-लोकेन्द्र सिंह
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। इसके साथ ही माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)
Matrishakti had become a symbol of sacrifice and courage in freedom movement