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दशकों तक यूपी की सियासत की धुरी रहे मुलायम अंत में अपने परिवार को एकजुट नहीं कर पाये

दशकों तक यूपी की सियासत की धुरी रहे मुलायम अंत में अपने परिवार को एकजुट नहीं कर पाये

दशकों तक यूपी की सियासत की धुरी रहे मुलायम अंत में अपने परिवार को एकजुट नहीं कर पाये

दशकों तक राजनीतिक दांव-पेंच के पुरोधा और विपक्ष की सियासत की धुरी रहे समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव कभी सियासी फलक से ओझल नहीं हुए। कभी कुश्ती के अखाड़े के महारथी रहे मुलायम सिंह यादव बाद में सियासी अखाड़े के भी माहिर पहलवान साबित हुए। उनका नाम मुलायम जरूर था लेकिन वह कड़े संघर्ष कर अपना सियासी मुकाम बनाने में सफल रहे थे। मुलायम सिंह यादव अपने समर्थकों के बीच हमेशा ‘नेता जी’ के नाम से मशहूर रहे। राम मंदिर आंदोलन के चरम पर पहुंचने के दौरान वर्ष 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन करने वाले मुलायम सिंह यादव को देश के हिंदी हृदय स्थल में हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार के बीच धर्मनिरपेक्षतापूर्ण सियासत के केंद्र बिंदु के तौर पर देखा गया था।

90 के दशक में मुलायम और अमर सिंह की दोस्ती इतनी मशहूर हुई थी कि इन दोनों नेताओं ने साथ मिलकर कई सियासी मुकाम हासिल किये लेकिन यह दोस्ती भी कुछ वर्षों पहले टूट गयी थी। इस दोस्ती के टूटने के बाद भी अमर सिंह का यही कहना था कि नेताजी मुझसे दूर नहीं हुए हैं उन्हें दूर किया गया है। अंत समय तक अमर सिंह का मुलायम प्रेम जारी था और अब यह दोनों दोस्त दूसरी दुनिया में एक बार फिर मिल गये होंगे।

एक संघर्षशील और जुझारू नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के सैफई गांव में एक किसान परिवार में 22 नवंबर 1939 को हुआ था। मुलायम सिंह यादव ने अपनी मेहनत से उत्तर प्रदेश में सबसे प्रमुख सियासी कुनबा भी बनाया। मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक कॅरियर पर नजर डालें तो आपको बता दें कि वह 10 बार विधायक रहे और सात बार सांसद भी चुने गए। वह तीन बार (वर्ष 1989-91, 1993-95 और 2003-2007) उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और 1996 से 98 तक देश के रक्षा मंत्री भी रहे। यही नहीं, एक समय उन्हें प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर भी देखा गया था। मुलायम सिंह यादव दशकों तक राष्ट्रीय नेता रहे लेकिन उत्तर प्रदेश ही ज्यादातर उनका राजनीतिक अखाड़ा रहा। समाजवाद के प्रणेता राम मनोहर लोहिया से प्रभावित होकर सियासी सफर शुरू करने वाले मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में ही अपनी राजनीति निखारी और तीन बार प्रदेश के सत्ताशीर्ष तक पहुंचे।

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वर्ष 2017 में समाजवादी पार्टी की बागडोर अखिलेश यादव के हाथ में आने के बाद भी मुलायम सिंह यादव पार्टी समर्थकों के लिए नेताजी बने रहे और मंच पर उनकी मौजूदगी समाजवादी कुनबे को जोड़े रखने की उम्मीद बंधाती थी। समाजवादी मुलायम सिंह यादव ने राजनीतिक संभावनाओं को हमेशा खोल कर रखा और वह हर अवसर का इस्तेमाल करने वाले राजनेता रहे। जोड़-तोड़ की राजनीति में भी माहिर माने जाने वाले मुलायम सिंह यादव समय-समय पर अनेक पार्टियों से जुड़े रहे। इनमें राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल, भारतीय लोक दल और समाजवादी जनता पार्टी भी शामिल हैं। उसके बाद वर्ष 1992 में उन्होंने समाजवादी पार्टी का गठन किया।

मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाने या बचाने के लिए जरूरत पड़ने पर बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और भाजपा से भी समझौते किए। वर्ष 2019 में संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में दोबारा वापसी का ‘आशीर्वाद’ देकर उन्होंने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। उन्होंने यह बयान तब दिया जब भाजपा को उत्तर प्रदेश में सपा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल माना जा रहा था। उनके इस बयान से तरह-तरह की अटकलें लगाई जाने लगी थीं। मुलायम सिंह यादव के कई बयान विवादास्पद भी रहे जिनमें वर्ष 2014 में एक रैली में दिए गए उनके बयान को लेकर उनकी काफी आलोचना हुई थी जिसमें उन्होंने बलात्कार के दोषियों को फांसी दिए जाने के प्रावधान की आलोचना पर कहा था कि ‘‘लड़कों से गलती हो जाती है।’’ 

मुलायम सिंह यादव के शुरुआती दिनों की बात करें तो छात्र राजनीति में सक्रिय रहे यादव ने राजनीति शास्त्र में डिग्री हासिल करने के बाद एक इंटर कॉलेज में कुछ समय के लिए शिक्षण कार्य भी किया। वह वर्ष 1967 में पहली बार जसवंत नगर सीट से विधायक चुने गए। अगले चुनाव में वह फिर इसी सीट से विधायक चुने गए। बेहद जुझारू नेता माने जाने वाले मुलायम सिंह यादव ने वर्ष 1975 में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा देश में आपातकाल घोषित किए जाने का कड़ा विरोध किया। वर्ष 1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद वह लोकदल की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष बने।

सियासत की नब्ज जानने की बेमिसाल योग्यता रखने वाले मुलायम सिंह यादव वर्ष 1982 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए चुने गए और इस दौरान वह वर्ष 1985 तक उच्च सदन में विपक्ष के नेता भी रहे। वह वर्ष 1989 में पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इसी दौरान राम जन्मभूमि आंदोलन ने तेजी पकड़ी और देश-प्रदेश की राजनीति इस मुद्दे पर केंद्रित हो गई। अयोध्या में कारसेवकों का जमावड़ा लग गया और उग्र कारसेवकों से बाबरी मस्जिद को ‘बचाने’ के लिए 30 अक्टूबर 1990 को कारसेवकों पर पुलिस ने गोलियां चलाई जिसमें पांच कारसेवकों की मौत हो गई। इस घटना के बाद राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भाजपा तथा अन्य हिंदूवादी संगठनों के निशाने पर आ गए और उन्हें ‘मुल्ला मुलायम’ तक कहा गया।

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बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए कारसेवकों पर कड़ी कार्रवाई के बाद मुस्लिम समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग सपा के साथ जुड़ गया, जिससे पार्टी के लिए ‘मुस्लिम-यादव’ का चुनाव जिताऊ समीकरण उभर कर सामने आया। इससे समाजवादी पार्टी राजनीतिक रूप से बेहद मजबूत हो गई। उत्तर प्रदेश की सियासत के पहलवान बनकर उभरे मुलायम सिंह यादव ने उसके बाद एक लंबे अरसे तक भाजपा, कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों को राज्य में मजबूत नहीं होने दिया।

नवंबर 1993 में मुलायम सिंह यादव बसपा के समर्थन से एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बने, लेकिन बाद में समर्थन वापस होने से उनकी सरकार गिर गई। उसके बाद मुलायम सिंह यादव ने राष्ट्रीय राजनीति का रुख किया और 1996 में मैनपुरी से लोकसभा चुनाव जीते। विपक्षी दलों द्वारा कांग्रेस का गैर भाजपाई विकल्प तैयार करने की कोशिशों के दौरान मुलायम कुछ वक्त के लिए प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर भी नजर आए। हालांकि, वह एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में बनी यूनाइटेड फ्रंट की सरकार में रक्षा मंत्री बनाए गए। हम आपको बता दें कि रूस के साथ सुखोई लड़ाकू विमान का सौदा भी उन्हीं के कार्यकाल में हुआ था।

बाद में मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश की राजनीति का रुख किया और वर्ष 2003 में तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 2007 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद बसपा की सरकार बनने पर वह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रहे। वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में सपा को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला। उस वक्त भी मुलायम सिंह यादव के ही मुख्यमंत्री बनने की पूरी संभावना थी लेकिन उन्होंने अपने बड़े बेटे अखिलेश यादव को यह जिम्मेदारी सौंपी और अखिलेश 38 वर्ष की उम्र में प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने।

मुलायम सिंह यादव के जीवन के अंतिम पड़ाव की बात करें तो वर्ष 2016 में यादव परिवार में बिखराव शुरू हो गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव के बीच वर्चस्व की जंग शुरू हो गई और एक जनवरी 2017 को पार्टी के आपात राष्ट्रीय अधिवेशन में यादव के स्थान पर उनके बेटे अखिलेश यादव को पार्टी अध्यक्ष बना दिया गया। हालांकि मुलायम सिंह यादव को पार्टी का ‘सर्वोच्च रहनुमा’ (संरक्षक) बनाया गया। बहरहाल, पार्टी में वाजिब ‘सम्मान’ नहीं मिलने पर शिवपाल ने वर्ष 2018 में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के नाम से अपना अलग दल बना लिया। मुलायम इस दौरान अपने कुनबे को एकजुट करने की भरपूर कोशिश करते रहे लेकिन इस बार उन्हें लगभग मायूसी ही हाथ लगी।

इस साल के शुरू में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश और शिवपाल यादव एक बार फिर साथ आए। इसका श्रेय भी मुलायम सिंह यादव को ही दिया गया। हालांकि, चुनाव में पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली जिसके बाद शिवपाल और अखिलेश के रास्ते एक बार फिर अलग-अलग हो गए। जिंदगी के आखिरी दिनों में मुलायम सिंह यादव स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याओं से घिर गए और 10 अक्टूबर 2022 को गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली। मुलायम जब तक जीवित रहे सपा कार्यकर्ताओं के लिए ‘नेता जी’ ही बने रहे।

क्या यादव कुनबा अब एकजुट रह पायेगा?

समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन से पार्टी पर कोई प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभाव भले ना पड़े लेकिन अब उनके पुत्र पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव को उनकी ‘छाया और कवच’ के बगैर काम करना होगा। अपने बेटे अखिलेश और सगे भाई शिवपाल सिंह यादव के बीच वर्चस्व की जंग के चलते कुनबे में हुए बिखराव के बावजूद मुलायम ही एकमात्र ऐसे शख्स थे जो हर मंच और मौके पर कुनबे को जोड़ने की आखिरी उम्मीद थे। उनके जाने के बाद अब हालात शायद पहले जैसे नहीं रह जाएंगे और परिवार की एकजुटता चाहने वाले लोगों को उनकी कमी जरूर खलेगी।

देखा जाये तो सपा पर अखिलेश यादव का नियंत्रण हो जाने के बाद मुलायम सिंह यादव का हाल के कुछ वर्षों में पार्टी कार्य संचालन में भले ही कोई प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं रहा हो, लेकिन उनका नाम अखिलेश यादव के लिए एक कवच की तरह था और वह अपने हर फैसले में अपने पिता की हामी होने का दावा करते थे। मुलायम के निधन के बाद अखिलेश के पास अब यह कवच नहीं रहेगा। अखिलेश को अब मुलायम की छाया के बगैर काम करना होगा। हालांकि, इसका पार्टी के आंतरिक मामलों पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव जरूर पड़ेगा। अखिलेश के विरोधी हो चुके उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव तथा उनसे जुड़े अन्य लोग मुलायम का लिहाज करके सपा नेतृत्व के खिलाफ खुलकर नहीं बोलते थे लेकिन अब उनके निधन के बाद हालात बदल सकते हैं। देखा जाये तो मुलायम अपने परिवार में जिस भावनात्मक जुड़ाव का मूल आधार थे वह उनके निधन के बाद अब शायद पहले जैसा नहीं रह जाएगा।

मुलायम सिंह यादव के निधन से समाजवादी पार्टी को निश्चित रूप से एक अपूरणीय क्षति हुई है और इसके कई तरह के प्रभाव सामने आ सकते हैं। अखिलेश यादव ने पिछले पांच वर्षों में समाजवादी पार्टी पर पूरी तरह से प्रभुत्व हासिल कर लिया है लेकिन राजनीतिक मंचों पर वह मुलायम सिंह यादव को हमेशा आगे रखते रहे। मुलायम के निधन से अखिलेश के साथ सहानुभूति जुड़ेगी। वे लोग भी भावनात्मक रूप से अखिलेश के साथ आ सकते हैं जो हाल के वर्षों में पार्टी से दूर हो गए थे। मुलायम सिंह यादव अपने कुनबे के मुखिया थे और जैसा कि हर परिवार में मुखिया के निधन के बाद अक्सर होता है, वह मुलायम के परिवार के साथ भी हो सकता है। इसलिए माना जा रहा है कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का विरोध करने वाले उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव अब और मुखर हो सकते हैं।

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देखा जाये तो मुलायम सिंह यादव स्वास्थ्य कारणों से भले ही राजनीति में सक्रिय न रहे हों लेकिन पार्टी के नेता अक्सर उनसे मिलकर विभिन्न मसलों पर उनसे सलाह लेते थे। पार्टी में कौन क्या कर रहा है, नेताजी (मुलायम) को इसकी खबर रहती थी। मुलायम सिंह यादव सपा के मार्गदर्शक थे। उन्होंने हमेशा संघर्ष का रास्ता अपनाने और लोगों की मदद करने की सीख दी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में जब समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया था और उसे 80 में से 38 सीटें दे दी थीं तो इस पर मुलायम ने नाराजगी जाहिर की थी। मुलायम सिंह यादव पार्टी के मार्गदर्शक होने के साथ-साथ उसे जोड़े रखने वाली शख्सियत भी थे। पार्टी में जब भी मतभेद उत्पन्न होते तो वह उसे समझाने का पूरा प्रयास करते। उनका मानना था कि व्यक्तिगत मतभेदों को पार्टी के विकास के आड़े नहीं आने देना चाहिए।

वर्ष 2017 में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव के बीच मतभेद गहरे होने के दौरान मुलायम ने उन्हें एकजुट करने की भरसक कोशिश की। बाद में शिवपाल ने जब प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के नाम से एक अलग दल बनाया तब भी मुलायम उन्हें आशीर्वाद देने पहुंचे। यही नहीं जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के समय इस साल उनके छोटे बेटे की बहू अपर्णा भाजपा में शामिल हो गयी थीं तब भी मुलायम ने उन्हें अपना आशीर्वाद दिया था।

उल्लेखनीय है कि मुलायम सिंह यादव का परिवार देश के सबसे बड़े राजनीतिक कुनबों में गिना जाता है। उनके बेटे सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं जबकि उनके भाई शिवपाल सिंह यादव यूपी में कैबिनेट मंत्री रहे हैं। इसके अलावा उनके चचेरे भाई रामगोपाल यादव और बहुएं डिंपल यादव तथा अपर्णा बिष्ट यादव भी राजनीति में हैं। देखना होगा कि अखिलेश अब अपने कुनबे को एकजुट रख पाते हैं या नहीं। वैसे देखा जाये तो अखिलेश अब तक पार्टी या गठबंधन को सही तरीके से नहीं चला सके हैं। इसलिए यदि अखिलेश आगे भी असफल रहे तो समाजवादी पार्टी के भविष्य पर सवालिया निशान लग सकता है।

Mulayam singh yadav could not unite his family in the end

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