सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वालों से वसूली के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानून की जरूरत
उत्तर प्रदेश के अमरोहा में सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पहुंचाने पर उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी संपत्ति क्षति वसूली दावा न्यायाधिकरण मेरठ ने पहली बार दंगा के मामले में 86 लोगों को सजा दी है। प्राधिकरण ने नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के विरोध प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के मामले में 4.27 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान करने का आदेश जारी किया। जिसमें प्रत्येक व्यक्ति से 4971 का जुर्माना वसूला जाएगा। देश में यह पहला मामला है जब कानूनी तौर पर सम्पत्ति के तोड़फोड़ के आरोपियों को आर्थिक दंड से दंडित किया गया है। हालांकि वसूली की यह राशि सभी आरोपियों के हिसाब से बहुत ज्यादा नहीं है किन्तु इससे यह संदेश जरूर गया है कि निजी और सार्वजनिक सम्पत्ति कोई खैरात नहीं है। इसके नुकसान के बाद अब भरपाई से बचा नहीं जा सकता। मांगों को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से प्रदर्शन करने का अधिकार होने का यह मतलब कदापि भी नहीं है कि हिंसा और तोड़फोड़ का सहारा लिया जाए।
उत्तर प्रदेश में 23 सितंबर 2022 को उत्तर प्रदेश लोक और निजी संपत्ति क्षति वसूली (संशोधन) विधेयक, 2022 पारित किया गया था। इस कानून के तहत गठित प्राधिकरण को सिविल कोर्ट की शक्ति प्रदान की गई। सबसे खास बात यह है कि इसका फैसला आखिरी होगा और उसके खिलाफ किसी भी कोर्ट में अपील नहीं की जा सकेगी। इससे पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के विरोध प्रदर्शन के दौरान निजी और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने पर 274 आरोपियों से करोड़ों की वसूली की थी। इसके विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैर कानूनी बताते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को आरोपियों से वसूली राशि वापस करने के आदेश दिए। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को राहत देते हुए प्राधिकरण के जरिए कार्रवाई करने का अधिकार दे दिया।
उत्तर प्रदेश के इस प्राधिकरण के गठन से पहले भी देश में सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोपियों के खिलाफ सजा देने के लिए केंद्र सरकार ने 1984 में लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम बनाया था, किन्तु इस कानून के तहत आरोपियों से नुकसान की वसूली का प्रावधान नहीं था। देश में आंदोलनों के दौरान सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति को निशाना बनाना आम है। राजनीतिक और गैर राजनीतिक आंदोलनों के दौरान देश ने इसकी भारी कीमत चुकाई है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे हैं। इससे तोड़फोड़ करने वाले आरोपियों को कानून का खौफ नहीं रहा। गौरतलब है कि अग्निपथ योजना के विरोध में प्रदर्शनों में रेलवे की जितनी संपत्ति फूंक दी गयी, उतनी संपत्ति का नुकसान रेलवे को एक दशक में भी नहीं हुआ। इस आंदोलन में रेलवे की करीब एक हजार करोड़ की सम्पत्ति का नुकसान हुआ था।
प्रदर्शनों के दौरान होने वाली विध्वंसात्मक कार्रवाई की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। ग्लोबल पीस इंडेक्स (जीपीआई) की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत को आंदोलनों के दौरान पिछले साल करीब 46 अरब डॉलर अर्थात करीब 50 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। इस रिपोर्ट में आइसलैंड को सबसे शांत देश बताया गया। रिपोर्ट में भारत 163 देशों की सूची में 135वें स्थान पर रहा। जबकि पाकिस्तान 54वें और चीन 138वें स्थान पर काबिज है। रिपोर्ट के मुताबिक देश में सीएए और एनआरसी विरोधी आंदोलन में हिंसक घटनाओं में बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। यदि अगर इन पैसों का सही जगह इस्तेमाल होता तो, देश में आज कई कल्याणकारी योजनाएँ रफ़्तार भरतीं। इस रिपोर्ट में सैन्य भर्ती के लिए बनाई अग्निपथ योजना के दौरान हुआ भारी नुकसान शामिल नहीं है। ग्लोबल पीस इंडेक्स के मुताबिक, हिंसा के कारण देश को जो नुकसान झेलना पड़ा है वो भारत के कुल जीडीपी का 6 प्रतिशत है। इन डरावने आँकड़ों के सामने आने के बाद भी लोगों की आँखें नहीं खुल रही हैं। आंदोलन एक निहित दायरे और संवैधानिक तरीक़े से करना चाहिए। आंदोलन को हिंसक बनाने से देश का ही नुक़सान है। इन पैसों से देश के लिए कई तरह की कल्याणकारी योजनाओं को संचालित किया जा सकता था। किसान आंदोलन, सीएए, एनआरसी, हिजाब, पैगंबर के मामले के अलावा कई प्रदर्शनों और हिंसा की घटनाओं के कारण देश को आर्थिक तौर पर कड़ी चोट पहुंची है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ वर्षों में, संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले हिंसक विरोध प्रदर्शनों में शामिल संगठनों के नेताओं पर मुकदमा चलाने, इस तरह की घटनाओं पर उच्च न्यायालयों से स्वत: संज्ञान लेने के लिए कहने और पीडि़तों को मुआवजा देने जैसे कई महत्वपूर्ण निर्देश दे रखे हैं। शीर्ष अदालत ने अधिकारियों से उन लोगों पर जवाबदेही तय करने को कहा है जो सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाते हैं। न्यायालय ने 16 अप्रैल, 2009 को न्यायमूर्ति केटी थॉमस, शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीश और प्रसिद्ध न्यायविद एफएस नरीमन के नेतृत्व वाली दो समितियों की सिफारिशों पर ध्यान दिया और कहा कि सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं तथा वे पर्याप्त दिशा-निर्देश देने वाले हैं जिन्हें अपनाए जाने की अवश्यकता है। शीर्ष अदालत ने नरीमन समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था जिनमें कहा गया था कि "जहां भी विरोध या उसके कारण संपत्ति का सामूहिक नुकसान हो, उच्च न्यायालय स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई जारी कर सकता है और नुकसान की जांच के लिए मशीनरी स्थापित कर सकता है तथा मुआवजे का निर्देश दे सकता है। वर्ष 2018 में शीर्ष अदालत ने कहा था कि किसी को भी कानून का "स्व-नियुक्त अभिभावक" बनने का अधिकार नहीं है क्योंकि भीड़ की हिंसा कानूनी सिद्धांतों के मूल के खिलाफ चलती है।
राजनीतिक दलों के नेता भी तोड़फोड़ करने, निजी और सार्वजनिक सम्पत्ति का नुकसान करने में पीछे नहीं हैं। वर्ष 2015 में केरल विधानसभा में तोड़फोड़ के आरोप में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट के सदस्यों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को वापस ले लिया गया।
लोगों को यह भी समझना होगा कि आखिर स्वतंत्रता का अर्थ क्या है एवं राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिये। मांगें मनवाने के लिए किसी भी तरह की तोड़फोड़ और हिंसा को किसी भी स्तर पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। सम्पत्तियों की तोड़फोड़ की वसूली के मामले में केंद्र सरकार को भी उत्तर प्रदेश जैसा वसूली का कानून बनाना चाहिए। मौजूदा केंद्रीय कानून में सिर्फ मामूली सजा का प्रावधान होने से ऐसे अराजक तत्वों पर नकेल नहीं कसी जा सकती। हिंसा-तोड़फोड़ में शामिल आरोपियों के खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस नहीं लिए जाने का भी नया कानून बनना चाहिए। ऐसे कड़े कानूनी प्रावधानों से ही देश को होने वाले भारी नुकसान से बचाया जा सकता है। कानून का भय होने से प्रदर्शनकारियों की ऐसी राष्ट्रविरोधी हरकतों पर लगाम लग सकेगी। इससे देश का हजारों करोड़ का होने वाला नुकसान भी नहीं होगा।
-योगेन्द्र योगी
Need for a national level law to recover from those who damage public property