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नोट, वोट और चोट (व्यंग्य)

नोट, वोट और चोट (व्यंग्य)

नोट, वोट और चोट (व्यंग्य)

बुल्डोजर फुटपाथ से कई दुकानें हटाने के बाद सुस्ता रहा था। सुस्ताए भी क्यों न! थोड़ी देर पहले ही उसे ग्रीस और ऑयल का शानदार भोजन जो मिल था। वह इससे पहले कि गहरी नींद में डूबता उसे धूल फांकती दुकानों की रुदाली ने उठा दिया। बुल्डोजर झल्लाकर उठा और दुकानों पर बरस पड़ा– यह हश्र करने के बाद भी तुम्हें शर्म नहीं आती। तुम्हें जमींदोज कर दिया फिर भी आवाज़ उठाने की आदत नहीं गई। लाख समझाया कि मजबूतों के सामने कमजोर गिड़गिड़ाने के लिए ही मुँह खोलता है। और तुम लोग हो कि उसी से लोहा ले रहे हो।
  
एक दुकान ने कहा– जबड़ा तो आप पहले भी रखते थे, लेकिन दाँत तो अभी के निकले हैं। काटना बड़े लोगों का विधान है और कराहना छोटों का। आप मुँह खोले और हम अंगुली न रखें, तो भला आपको चबाने के लिए क्या मिलेगा?

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बुल्डोजर– जब इतने ही समझदार हो तो जमींदोज होने से पहले अपने मालिकों को समझा क्यों नहीं दिया। धोखा खाने के बाद ही आँखों का खुलना कब तक चलता रहेगा? आँखें केवल धोखा खाने और खुलने के लिए ही नहीं होतीं, बल्कि चिंतन-मनन करने के लिए भी होती हैं। 

दूसरी दुकान ने कहा– बात तो आपकी लाख टका सच है। ये पिचके हुए गालों वाले, अँतड़ियों से चिपके हुए पेटों वाले, व्यवस्था की आँखों में धंसने वाले और चपड़-चपड़ करने वाली लंबी जबान वाले हमारे मालिकों को कौन समझाएगा। वह बेवकूफ तो केवल इतना सोचता रहा कि पेट भरने के लिए कमाना पड़ता है। उसे कहाँ पता था कि कमाने से ज्यादा तलवे चाटना और पेट पर पड़ रही लात को अपना सौभाग्य समझना, आपसे बचने का मूलमत्र है।

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बुल्डोजर– बातें तो बड़ी समझदारी की करते हो, फिर यह अक्ल पहले कहाँ गयी थी? तब क्या तुम्हें लकवा मार गया था?

तीसरी दुकान– अब क्या बताएँ भैया! हमारा मालिक संविधान का हर पन्ना बड़ी तबियत से चाटता था। चाटने का परिणाम यह हुआ कि वह जागरूक बन गया। अब उसे भला कौन बताए कि संविधान पढ़ने वाला ठीक उस उबाल की तरह होता है जो दूध के गर्म होने पर दिखाई देता है। ऐसे उफान को व्यवस्था पानी की चार बूँदें डालकर ठंडा कर देती हैं। उबाल आने में देर भले लगे, लेकिन ठंडा पड़ने में विलंब कतई नहीं होता। 

बुल्डोजर– इसीलिए तो कहता था पत्थर के नीचे हाथ हो, पागल के हाथ में चाबुक हो और अंधे के हाथ में सत्ता हो तो कभी नखरे नहीं करना चाहिए। संविधान की दुहाई, सड़कछाप दवाई का इस्तेमाल बेवकूफ करते हैं, समझदार सत्ता के साथ मिलकर सामान्यों की पिटाई करते हैं। कभी महंगाई तो कभी गरीबी, कभी लाचारी तो कभी बेरोजगारी के चाबुक से। पीटना एक का कर्म है, तो पिटवाना दूसरे का भाग्य। इस कर्म और भाग्य के चक्कर में पीसने वाला आम आदमी होता है जो वोट देने के सिवाय दूसरा कुछ नहीं जानता। नोट लेकर वोट देकर चोट खाने वाला ही आम आदमी कहलाता है। 

इतना कहकर एक हेडलाइट वाला अर्धअंधा बुल्डोजर ठेंगा दिखाकर सो गया। 

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
(हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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