गुजरात में बीजेपी और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की स्पष्ट चुनावी जीत के ये हैं सियासी मायने
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाने वाला भारत के दो राज्यों यानी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों के आये परिणामों ने मतदाताओं की जनतांत्रिक और राजनीतिक परिपक्वताओं को एक बार फिर से जगजाहिर कर दिया है। उन्होंने देश की सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को गुजरात में और प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश में स्पष्ट बहुमत देकर खुश होने की वजह दे दी है। यह बात अलग है कि हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की हार और गुजरात में कांग्रेस की शर्मनाक हार दोनों दलों के रणनीतिकारों की जेहन को कुरेदते रहेंगे कि आखिर ऐसा कैसे हुआ, क्यों हुआ और अब आगे क्या करना चाहिए?
इस बात में कोई दो राय नहीं कि गुजरात अब बीजेपी का गढ़ बन चुका है। वहां पर पिछले 27 वर्षों से भारतीय जनता पार्टी काबिज है। उसके मतों में हर चुनाव में इजाफा हो रहा है। इसे लोग मोदी मैजिक यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा करार दे रहे हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री बनने से पहले वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे और अपने गुजरात मॉडल के लिए देश-दुनिया में जाने जाते हैं। वहीं, हिमाचल प्रदेश में हरेक पांच साल में कांग्रेस और बीजेपी के बीच होती रही सूबाई सत्ता की अदलाबदली के तहत इस बार मौका फिर से कांग्रेस को मिला है, क्योंकि जनता ने उसे स्पष्ट जनादेश दिया है। पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी की मेहनत और राज्य नेतृत्व द्वारा बीजेपी की घेराबंदी करते हुए जनता को फ्री में कुछ कुछ देने के वायदे यहां कारगर साबित हुए हैं।
सच कहा जाए तो मतदाताओं ने बीजेपी और कांग्रेस को अपनी-अपनी नीतियों में कतिपय जनहितकारी बदलाव करने, करते रहने की स्पष्ट नसीहत दी है, अन्यथा परिणाम भुगतने को तैयार रहने का संकेत दे दिया है। देखा जाए तो हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की हार अधिक विस्मय पैदा करती है। क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा इसी प्रदेश के मूल निवासी हैं। वहीं, केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर भी इसी राज्य से आते हैं। यहां के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भले ही चुनाव जीत गए हों, लेकिन अपनी पार्टी बीजेपी को बहुमत नहीं दिला पाए। यहां भाजपा की कांग्रेस से सीधी टक्कर रही, जिसमें बीजेपी हार गई। यह बात अलग है कि यदि आप यहां मजबूत हुई होती, जैसा कि अफवाह पंजाब विधानसभा चुनावों के बाद उड़ी, तो वह कांग्रेस की वोट काटती। इससे बीजेपी को गुजरात की तरह यहां पर भी फायदा हो जाता।
लेकिन कांग्रेस ने तो गुजरात में हद ही कर दी। उसके बड़े नेताओं यानी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने चुनाव पूर्व ही हथियार डाल दिये और बीजेपी के खिलाफ तगड़ी घेराबंदी नहीं की। इससे कांग्रेस अपना 2017 वाला प्रदर्शन भी बरकरार नहीं रख पाई। उल्टे इसका फायदा आम आदमी पार्टी को मिला और उसने राज्य में न केवल अपना जनाधार बढ़ाया, बल्कि लगभग आधा दर्जन सीटें भी झटक ली। यह ठीक है कि गुजरात में कांग्रेस को आम आदमी पार्टी से अधिक सीट तब हासिल हुई, जब उसके दिग्गज नेताओं ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। अन्यथा चुनाव परिणाम एकतरफा बीजेपी के पक्ष में नहीं जाता और न ही आम आदमी पार्टी को वहां उछलने का कोई खास मौका मिलता।
इन चुनावों ने एक बार फिर से यह स्पष्ट कर दिया है कि जनता अब पिछली त्रिशंकु सरकारों का हश्र देख स्पष्ट जनादेश देने लगी है। वह किसी एक पार्टी पर फिदा होने की जगह गुण-दोष के आधार पर सभी प्रमुख पार्टियों को मौका दे रही है, जो उसकी नजरों में योग्य हैं। मतदाताओं की यह मनोदशा कांग्रेस के बाद अब बीजेपी के लिए भी सेहतमंद नहीं कही जा सकती है। एमसीडी चुनावों में आप को मिली हालिया क्लीन स्वीप भी इस बात की तस्दीक कर चुकी है। जनता का मूड बता रहा है कि भविष्य का चुनावी महाभारत बीजेपी और कांग्रेस के बीच न होकर बीजेपी और आप जैसी क्षेत्रीय ताकतों के बीच होगी, जिसके मुताल्लिक कांग्रेस को बीजेपी के मुकाबले में खड़ा होने के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों का सहारा लेना होगा, जो कि कांग्रेस को भाव देने के मुड में नहीं हैं।
बता दें कि बिहार में राजद और जदयू, उत्तरप्रदेश में सपा, रालोद और बसपा, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और माकपा, उड़ीसा में बीजू जनता दल, हरियाणा में लोकदल, महाराष्ट्र में राकांपा और शिवसेना, आंध्र प्रदेश में वाईसीआर कांग्रेस और टीडीपी, तेलंगाना में टीआरएस, कर्नाटक में जनतादल सेक्युलर, तमिलनाडु में द्रमुक और अन्नाद्रमुक, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी, केरल में माकपा और मुस्लिम लीग आदि दो दर्जन ऐसे दल हैं जो कभी बीजेपी नीत एनडीए तो कभी कांग्रेस नीत यूपीए का अंग बनकर खुद तो मजबूत हो रहे हैं, लेकिन अपने इलाके में बीजेपी और कांग्रेस को पनपने नहीं दे रहे हैं।
जानकारों का कहना है कि चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी, दोनों ने पूंजीवाद का समर्थन किया है, जिससे आम आदमी का व्यापक सत्ता हित नहीं सध रहा है। इसलिए आम आदमी क्षेत्रीय दलों से उम्मीद पाल रहा है, जो बहुमत मिलते ही गिरगिट की तरह रंग बदल देते हैं और कांग्रेस या बीजेपी की भाषा बोलने लगते हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी की फ्री में सत्ता की रेवड़ी बांटने की स्कीम धीरे-धीरे लोकप्रिय होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस, बीजेपी या समाजवादी राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों के नेता मतदाताओं को फ्री में बिजली-पानी-कम मूल्य पर राशन आदि देने के खिलाफ हैं, बल्कि अपने-अपने एजेंडों के मुताबिक इन सब दलों ने भी सीमित दायरे में किसानों की ऋण माफी, सस्ता दर पर अनाज, रोजगार सब्सिडी आदि देने का उपक्रम किया है।
लेकिन आम आदमी पार्टी ने लोगों को बिजली-सड़क-पानी के अलावा शिक्षा और स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में भी बेहतर जनसुविधाओं को उपलब्ध करवाने का निश्चय किया और रोटी, कपड़ा और मकान के नजरिये से कुछ फ्री की सौगातें भी दी, जिससे दिल्ली और पंजाब में वह लोकप्रिय हो गई तथा अन्य राज्यों में भी लोकप्रियता हासिल करने की ओर बढ़ चली है। गोवा और गुजरात में उसका खाता खुलना इस बात की पुष्टि करता है। हां, यूपी और हिमाचल प्रदेश में उसे धक्का लगा है, लेकिन इससे उसका उत्साह कम नहीं हुआ है। यह स्थिति कांग्रेस के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि जहां जहां वह मजबूत हुई है, कांग्रेस कमजोर हुई है।
जहाँ तक भाजपा की बात है तो कांग्रेसी कैडर, समाजवादी कैडर और वामपंथी कैडर पर भले ही आरएसएस-बीजेपी के कैडरभारी पड़ते आये हों, लेकिन केजरीवाल कैडर के सामने वो भी हांफने लगते हैं। यदि यही हाल रहा तो आम आदमी पार्टी देर सबेर सबको नाको चने चबवा देगी। इसलिए बीजेपी-कांग्रेस को अपने अपने सियासी किले की घेराबंदी सुनिश्चित कर लेनी चाहिए और कालखण्ड के मुताबिक उसमें दिख रहे दरारों को पाट लेना चाहिए।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
Political significance of the electoral victory of bjp in gujarat and congress in himachal