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तिब्बत की आजादी के यक्ष प्रश्न का आखिर कब तक मिलेगा जवाब या फिर रहने दिया जाएगा अनुत्तरित

तिब्बत की आजादी के यक्ष प्रश्न का आखिर कब तक मिलेगा जवाब या फिर रहने दिया जाएगा अनुत्तरित

तिब्बत की आजादी के यक्ष प्रश्न का आखिर कब तक मिलेगा जवाब या फिर रहने दिया जाएगा अनुत्तरित

तिब्बत की आजादी 20 वीं शताब्दी का यक्ष प्रश्न है और 21 वीं शताब्दी के प्रथम चौथाई वर्ष तक भी इसका उत्तर न मिलना सभ्य समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है। जैसे हमलोग छोटे-छोटे राज्यों के गठन को विकास के लिए जरूरी अवधारणा करार देते हैं, वैसी ही बात छोटे-छोटे देशों के गठन पर लागू की जा सकती है। खासकर दशकों से संघर्षरत उन क्षेत्र विशेष के लोगों के लिए, जो कभी आजाद थे, लेकिन 20 वीं सदी के नवसाम्राज्यवादी साम्यवादी महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गए। 

खासकर तिब्बतियों का सवाल उसमें सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए भारत सरकार को चाहिए कि वह नेहरुयुगीन वन चाइना पालिसी पर पुनर्विचार करे, क्योंकि वह हमारा विनम्र पड़ोसी देश रहा है। उससे हमारे गहरे आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं। 1950 के दशक के अंतिम वर्षों से अबतक तिब्बत और उससे सटे भारतीय भूभाग के प्रति चीन का जो झपटमार रवैया रहा है, उसके मुत्तालिक यह और भी जरूरी हो जाता है कि आजाद तिब्बत ही अंतरराष्ट्रीय भारतीय हित सुरक्षित रख सकता है और इस विषय पर जनमत कायम करने के लिए हमें अपने हिस्से का सर्वश्रेष्ठ योगदान देना चाहिए।

कहना न होगा कि जब भारत एक स्वतंत्र देश था, तब उसका तिब्बत से कोई सीमा विवाद नहीं था। लेकिन 1959 में चीन द्वारा तिब्बत पर अवैध रूप से कब्जा किये जाने के बाद से हमने सीमा पर घुसपैठ और चीनी कम्युनिस्ट शासन द्वारा डराने-धमकाने की रणनीति देखी है। ऐसा इसलिए कि चीन द्वारा इन हथकंडों का इस्तेमाल देश में चल रहे संकट से ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा है, जहां चीनी लोग प्रत्यक्ष लोकतंत्र को अपनाने के लिए कम्युनिस्ट शासन से मुक्ति की मांग कर रहे हैं।

नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ तिब्बत के अध्यक्ष ताशी वांगचुक ने भारत सरकार से वन चाइना पालिसी पर फिर से विचार करने का आग्रह करते हुए कहा है कि यह सही समय है जब भारत वन चाइना पालिसी का परित्याग कर दे, क्योंकि यह नीति सुरक्षित सीमा होने के भारत के लक्ष्य को सख्ती से प्रभावित करती है। देखा जाए तो वांगचुक की बातों में दम है। 1959 से लेकर अबतक चीन भारत की सीमाओं पर एक नहीं, बल्कि अनेक हरकत कर चुका है।

बहरहाल, हर बात में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को कोसने वाली बीजेपी को चाहिए कि वह अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात के लिए राजी करे कि कांग्रेसी वन चाइना पालिसी का परित्याग करके तिब्बत की आजादी के आंदोलन को मदद करें और विश्व जनमत कायम करने हेतु अपने बढ़ते हुए अंतरराष्ट्रीय कद का उपयोग करें। ऐसा करके ही  भारत 1962 में चीन के हाथों हुई शर्मनाक पराजय का बदला ले सकता है। मौजूदा वक्त में चीन जिस तरह के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय चक्रव्यूह में घिरा हुआ है, उसके परिप्रेक्ष्य में भारत का मास्टर स्ट्रोक चीन को भींगी बिल्ली बनने के लिए बाध्य कर देगा।

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जिस तरह से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहने वाले तिब्बती शरणार्थियों ने गत 9 दिसम्बर को अरुणाचल के तवांग सेक्टर में चीन की घुसपैठ के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया है और भारत से चीन सम्बन्धी नीति पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है, वह वक्त का पदचाप है। इस मौके पर तिब्बतियों ने न केवल चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की कारगुजारियों की निंदा की, बल्कि चीन से तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग करते हुए ऐलान किया कि हमलोग भारतीय सेना के साथ साथ भारतीय लोगों के लिए अपना समर्थन दिखाने के लिए एकत्र हुए हैं। तिब्बती शरणार्थी होने के चलते हम चीन से तिब्बत की आजादी की मांग कर रहे हैं। 

बता दें कि तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को उनके अनुयायी एक जीवित ईश्वर यानी साक्षात भगवान के रूप में देखते हैं। चीन और तिब्बत के बीच विवाद तिब्बत की कानूनी स्थिति को लेकर अब तलक बरकरार है। भले ही चीन का मानना है कि तिब्बत 13वीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा है। लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों से स्वतंत्र राज्य यानी देश था। वर्ष 1912 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की। 

हालांकि, वर्ष 1951 में चीनी सेना ने एक बार फिर तिब्बत पर नियंत्रण कर लिया। बताया जाता है कि तब बातचीत के लिए तिब्बत से चीन गए शिष्टमंडल के नेताओं से तिब्बत के चीन में शामिल होने की एक संधि पर चीनी सेना ने जबरिया हस्ताक्षर करा लिया गया। फिर 1949 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर उसे दुनिया से काट दिया। उसके बाद तिब्बती लोग चीनी सेना की कड़ी निगरानी में रहने लगे। फिर 31 मार्च 1959 को तिब्बत के 14वें दलाई लामा ने भारत में कदम रखा। बताया जाता है कि दलाई लामा 17 मार्च 1959 को पैदल ही ल्हासा से निकले और 31 मार्च 1959 को अपने लाखों अनुयायियों के साथ भारत में कदम रखा। भारत ने भी उस वक्त तिब्बत से आए शरणार्थियों का साथ दिया। उसके बाद 60 के दशक में चीन ने तिब्बत के बौद्ध विहारों को नष्ट किया। 

इतिहास गवाह है कि तब भारत के द्वारा तिब्बती शरणार्थी को उत्तर और पूर्वोत्तर भारत में बसाया गया और दलाई लामा के लिए हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में व्यवस्था की गई। इस दौरान उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में भी तिब्बतियों की एक कॉलोनी बनाई गई। तब से आजतक ये तिब्बती यहीं पर रह रहे हैं और अब उनकी जनसंख्या में काफी इजाफा हो गया है। 

बताया जाता है कि चीन ने बड़े ही चालाकी के साथ धीरे-धीरे तिब्बत को निगलना शुरू किया था। दरअसल, तिब्बत आम्दो, खाम्बा और ऊंचाऊंग जैसे तीन बड़े-बड़े हिस्सों से मिलकर बना है। इसलिए जब चीनी सैनिकों ने आम्दो की तरफ से घुसपैठ शुरू की तो तिब्बत आर्मी के जवानों ने डेढ़ सालों तक डटकर उनका मुकाबला किया। लेकिन धीरे-धीरे चीन ने तिब्बत में बड़ी संख्या में सैनिकों को उतार दिया, जिसके बाद तिब्बत आर्मी को ढकेलते हुए ल्हासा पर कब्जा कर लिया था।

इससे साफ होता है कि पहले चीन ने तिब्बत के राजनीतिक और सामाजिक चक्र अस्थिर किए और फिर आम लोगों पर निशाना साधने लग। फिर धीरे-धीरे चीन ने तिब्बत में अपनी पूरी फौज लगा दी। ततपश्चात चीन का केवल एक मकसद रह गया कि धर्मगुरु दलाई लामा को हासिल कर तिब्बत की आवाज को दबा देना। लेकिन  दलाई लामा को मिली भारत की मदद से चीन की वह हसरत पूरी नहीं हो पाई।

गौरतलब है कि जून 2003 में भारत ने आधिकारिक रूप से तिब्बत को चीन का हिस्सा माना। यह भारत सरकार और उसके तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की एक बड़ी भूल साबित हुई। भले ही उन्होंने दगाबाज चीन से भारतीय सम्बन्धों को सुधारने के लिए यह पहल की होगी, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह महसूस होता है कि भारत एक बार फिर छला गया।

दरअसल, उन्हें यह समझना चाहिए था कि जब भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) का गठन किया गया होगा तो उसका ऐसा नामकरण इसलिए किया गया होगा कि भारत की सीमाएं तिब्बत से सटती हैं, चीन से नहीं! इन बातों से साफ है कि साहित्य मिजाजी नेहरू की तरह बाजपेयी भी चतुर चीनियों की चालाकी समझ नहीं पाए।

अलबत्ता अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वे अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री की गलतियों को सुधारें और तिब्बत की आजादी को अपना नैतिक समर्थन दें, ताकि भारत के भविष्य का दुश्मन चीन अपने ही मकड़जाल में फंसकर बेमौत मर जाये, वो भी भारत नहीं, बल्कि ताइवान और अमेरिका के हाथों!

लिहाजा, तिब्बतियों की इन बातों में दम है कि यदि दुनिया की सियासत को गहरे तक प्रभावित करने वाली भारत सरकार दृढ़निश्चय कर ले तो तिब्बत की आजादी कोई दिवास्वप्न नहीं, बल्कि कोरा अंतरराष्ट्रीय हकीकत है। जिस दिन ऐसा हुआ, उस दिन से चीन-पाकिस्तान की संयुक्त तिकड़म से प्रभावित हो रही भारत सरकार निश्चिंत हो जाएगी और उसकी वैश्विक प्रतिष्ठा में और अधिक इजाफा होगा। गौर करने वाली बात यह है कि भारत की इस नेक पहल से कैलाश-मानसरोवर, तिब्बत पर विराजमान देवाधिदेव महादेव भगवान भोलेनाथ भी प्रसन्न होंगे और उनके लाखों-करोड़ों भक्तों को उनका दिव्य दर्शन भी सुलभ होगा।

- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

Question of independence of tibet be answered or will it remain unanswered

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