आरक्षण जन्म के आधार पर नहीं, जरूरत के आधार पर दिया जाना चाहिए
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का कौन स्वागत नहीं करेगा कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10 प्रतिशत आरक्षण का आधार सिर्फ गरीबी होगी। यह 10 प्रतिशत आरक्षण अतिरिक्त है। याने पहले से चले आ रहे 50 प्रतिशत आरक्षण में कोई कटौती नहीं की गई है। फिर भी पांच में से दो जजों ने इस आरक्षण के विरुद्ध फैसला दिया है और तमिलनाडु की सरकार ने भी इसका विरोध किया है। जिन दो जजों ने इसके विरुद्ध फैसला दिया है, उनके तर्कों में दम नहीं है। उनका कहना है कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देना संविधान का उल्लंघन करना है।
संविधान की किसी धारा में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत निश्चित नहीं की गई है। तो मान ली गई है, 1992 में सर्वोच्च न्यायालय में आए इंदिरा साहनी मामले के कारण! अब सर्वोच्च न्यायालय क्या वहीं बैठा रहे, जहां वह 30 साल पहले बैठा हुआ था? उसी समय नरसिंह राव-सरकार ने गरीबी के आधार पर लोगों को आरक्षण देने की घोषणा की थी। उसी घोषणा को 2019 में भाजपा सरकार ने संविधान का अंग बना दिया। अब कांग्रेस और भाजपा दोनों इसका श्रेय लूटने की प्रतिस्पर्धा में हैं लेकिन मैं तो जन्म के आधार पर दिए गए सारे आरक्षणों के एकदम विरुद्ध हूं, चाहे वह अनुसूचितों या पिछड़ों या तथाकथित अल्पसंख्यकों को दिया जाए।
मेरी राय में आरक्षण जन्म के आधार पर नहीं, जरूरत के आधार पर दिया जाना चाहिए। मुझे खुशी थी कि नरसिंह राव और मनमोहन सिंह सरकार ने उस दिशा में कदम बढ़ाए और मोदी बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस मामले में ठोस निर्णय का साहस दिखाया। लेकिन यह काम अभी भी अधूरा है। संसद में 2019 में जब गरीबी को आरक्षण का आधार बनाकर सरकार विधेयक लाई थी, तब 323 सांसदों ने उसका समर्थन किया था और सिर्फ 3 सांसदों ने विरोध। लेकिन किसी नेता या पार्टी की आज हिम्मत नहीं है कि वह डॉ. आंबेडकर की इच्छा को मूर्त रूप दे सके। उन्होंने कहा था कि जन्म के आधार पर दिया गया आरक्षण दस साल के लिए काफी है। अब तो इसको पैदा हुए दर्जनों साल हो गए हैं। यह देश में अयोग्यता, अकर्मण्यता, भेदभाव, जातिवाद और मलाईदार वर्ग को प्रोत्साहित करने का साधन बन गया है। इसी कारण देश की सारी सरकारें रेवड़ी-संस्कृति की शिकार हो रही हैं।
थोक वोट का लालच याने कुर्सी का लोभ हमारे सारे नेताओं के लिए इतना प्रगाढ़ हो गया है कि उन्होंने राष्ट्रहित को दरी के नीचे सरका दिया है। यदि नौकरियों के बजाय शिक्षा और चिकित्सा में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया होता तो सरकारी भीख पर कौन जिंदा रहना चाहता? गरीबी के आधार पर दिया गया आरक्षण जातीय और सांप्रदायिक आरक्षण से कहीं बेहतर सिद्ध होता। वह भारत में एकता और समानता का मूलाधार बनता और 75 साल में भारत की गिनती दुनिया के महासंपन्न और महाशक्तिशाली राष्ट्रों में हो जाती। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय एक अधूरी लेकिन बहुत सराहनीय शुरुआत है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
Reservation should be given on the basis of need not on the basis of birth