भूख सूचकांक को समझना (व्यंग्य)
पहली बात तो यह कि यह सूचकांक रिपोर्ट सरासर झूठ है। हमारी निरंतर प्रगति से जल भुनकर बनाई गई है। इस में वही विदेशी हाथ है जो हमेशा हमारे देश के खिलाफ काम करता रहा है। हमारे जैसे देशों की वजह से ही संयुक्त राष्ट्र संघ चल रहा है, इन्हें सलीका होना चाहिए कि विश्वगुरु देश के बारे में क्या कहना है, क्या नहीं कहना है। हम विश्वगुरु का लिबास पहनकर, विश्व की पहली सुदृढ़ अर्थ व्यवस्था बनने की ओर, मनचाहे रंग के घोड़े पर बैठकर दौड़ रहे हैं। भूख सूचकांक बनाने वाले, कहीं उन ख़बरों से फीड बैक तो नहीं लेते जिनमें बताया जाता है कि अस्सी करोड़ लोगों को सरकारजी मुफ्त में राशन दे रही है। कोई भी ऐसी जानकारी हमसे बातचीत कर देनी चाहिए। इतने विशाल देश में, इतना कुछ खाने पीने और हजम करने के बाद कुछ देशवासी भूखे रह भी गए तो क्या हो गया। गलत नक्षत्रों में पैदा होने वाले भारतवासी और ऐसे ही दूसरों को मिलाकर भूख सूचकांक में इतने ज़्यादा अंक आ जाते हैं। वैसे ज़्यादा अंक तो ज़्यादा और अच्छे होते हैं इसलिए बेहतर सोचते हुए सकारात्मक लेना चाहिए।
सूचकांक व विवरणी बनाने और निरीक्षकों को कुशाग्र तरीके से हैंडल करने में हमें महारत हासिल है। स्पष्ट है हम विश्वगुरु हैं। हमारे यहां व्रत रखने की सुदृढ़ संपन्न परम्परा है और निरंतर विकसित होती जा रही है। अगर भूखे रहने वालों को व्रत रखने वाले मानकर उनकी संख्या, व्रत रखने वालों की संख्या में जमा कर दी जाए और जान बूझकर भूखे रहने वालों की संख्या भी ज़बर्दस्ती जोड़ दी जाए तो भूख सूचकांक और नीचे आ सकता है। सुविधा संपन्न राजनीतिजी इसमें बेहद सक्रिय भूमिका निभा सकती है।
कितनी प्रसन्नता की बात है कि हमारे देश के दस प्रतिशत लोगों के पास, देश की सारी दौलत का सत्तावन प्रतिशत है। अगर इन आंकड़ों को निम्नस्तर पर जीने वाले लोगों के आंकड़ों के साथ, अच्छी तरह से मिक्स कर, औसत निकाली जाए तो सत्तावन प्रतिशत दौलत के आंकड़े भी तो बहुत ज्यादा कम दौलत वालों के साथ मिल जाएंगे। इनके साथ हम सिर्फ एक बार खाना खा सकने वालों की संख्या भी मिला सकते हैं। अच्छी तरह से पकाए हुए, नए ताज़े आंकड़े बनाकर यदि स्वादिष्ट प्रैस नोट जारी कर दिया जाए तो हमारे अंक काफी कम हो सकते हैं। इससे एक नया संतुष्टिदायक परिणाम निकलेगा जो संयुक्त राष्ट्र संघ वालों के भूख सूचकांक में भी उनके हिसाब से बेहतर जगह पा सकता है।
Understanding the hunger index