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Gyan Ganga: भगवान की परीक्षा लेने के लिए ब्रह्माजी ने क्या लीला रची थी?

Gyan Ganga: भगवान की परीक्षा लेने के लिए ब्रह्माजी ने क्या लीला रची थी?

Gyan Ganga: भगवान की परीक्षा लेने के लिए ब्रह्माजी ने क्या लीला रची थी?

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 

प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।

मित्रों ! पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि भगवान श्रीकृष्ण को ग्वाल-बालों के साथ भोजन करते हुए देखकर ब्रह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे, भोजन करने का ये कौन सा तरीका है? हाथ-पैर धोकर बैठना चाहिए, पवित्रता के साथ आसन पर बैठना चाहिए, न जूठा खाना चाहिए न खिलाना चाहिए मौन होकर भोजन करना चाहिए। यहाँ तो एक भी लक्षण नहीं दिख रहा है। मुझे तो लगता है ये नारायण नहीं हो सकते। अब ब्रह्माजी ने सोचा कि जब इतना संकल्प विकल्प हो रहा है तो क्यों न परीक्षा ले ली जाए।

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आइए ! अब कथा के अगले प्रसंग में चलते हैं-- 

अब भगवान की परीक्षा लेने के लिए ब्रह्माजी ने क्या लीला की, आइए ! देखते हैं-- भगवान इधर भोजन करने में लगे थे व्रजवासियों के साथ मस्ती-मज़ाक में व्यस्त थे उधर ब्रह्माजी धीरे से आए और सभी गाय-बछड़ो को उठाकर ब्रह्मलोक में लेकर चले गए। व्रजवासी बोले- अरे, लाला ! खाते ही रहोगे की बछड्न को भी देखोगे, दूर-दूर तक एक भी नजर नहीं आ रहे हैं। कन्हैया बोले— अच्छा तुम लोग भोजन करो मैं देखता हूँ, आंखिर हमारे सबके सब बछड़े कहाँ चले गए ? कन्हैया ने दही भात मुँह में भर लिया और कुछ हाथ में लेकर दौड़ लगा दी। सपाणि कवलो ययौ। अब भगवान गाय-बछड़ो को ढूंढ़ने निकले, इधर ब्रह्माजी को मौका मिला, उन्होंने सभी ग्वाल-बालों को भी उठा लिया और ब्रह्मलोक में छिपा दिया। इधर कृष्ण ने पूरा जंगल छान मारा एक भी गाय-बछड़ा नहीं दिखा। प्रभु ने सोचा, यदि गायब होता तो एकाध बछड़े कहीं इधर-उधर चले जाते, हमारे तो हजारों बछड़े थे, अचानक सबके सब कहाँ चले गए? सोचते-विचारते यमुना के किनारे आए, तो देखा कि सबके सब व्रजवासी भी गायब। अब भगवान को लगा कि, भाई जरूर कुछ गड़बड़ है। ध्यान लगाकर देखा तो सब समझ गए। अच्छा तो ये ब्रह्मा बाबा की करामात है। ये हमारी परीक्षा ले रहे हैं। ठीक है हम भी इनको जवाब देते हैं। जो जिस विषय का ज्ञाता हो उसको उसी विषय में प्रभावित किया जाए तो वह आपकी महत्ता स्वीकार करेगा आपको पंडित समझेगा। यदि व्याकरण का ज्ञानी हो तो आप उसको व्याकरण की व्युत्पति से प्रभावित कीजिए तो वह आपको श्रेष्ठ मानेगा। अब भगवान को लगा कि ब्रह्माजी शृष्टि करने के विशेषज्ञ हैं। मै भी इनको नई श्रीष्टि करके दिखाता हूँ। उन्ही के विषय में उनको प्रभावित करना चाहिए। भगवान ने लीला रची, जितने व्रजवासी थे उतने व्रजवासी बन गए। जितने बछड़े थे भगवान उतने बछड़े बनकर तैयार हो गए। और रूप-रेखा में कोई अंतर नहीं, तद्वत, ब्रह्मा की सृष्टि के अनुरूप, नई सृष्टि बनकर तैयार हो गई। भगवान ने केवल शरीर मात्र ही नहीं बनाया बल्कि जो जैसा कपड़ा पहनकर आया था भगवान वैसे ही कपड़े भी बन गए। जो जैसा डंडा लेकर आया था वैसा ही डंडा भी बन गए। यदि केवल शरीर ही बनाते और ग्वाल-बाल अपने घर नंगे ही जाते तो उनके माँ-बाप टोकते, तुम्हारा कपड़ा और डंडा कहाँ गया? इसलिए प्रभु को कपड़ा भी बनना पड़ा। सर्वं विश्वमयम जगत आज यह महावाक्य भगवान ने चरितार्थ कर दिया।

भागवतकार कहते हैं ------

यावद् वत्सपवत्सकाल्पकवपु यावद कराङ्घ्र्यादिकम   
यावद्यष्टिविषाणवेणुदलशिग् यावद् विभूषाम्बरम।  
यावद् शीलगुणाभिधा कृतिवयो यावद् विहारादिकम्
सर्वं विष्णुमयं गिरोङ्ग वदजसर्वस्वरूपो बभौ ॥   

उसी का रूपांतर गोस्वामी जी ने किया- 
सीय राममय सब जग जानी, करहूँ प्रणाम जोरी जुग पानी॥ 

शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित तब तक ब्रह्मा जी भी ब्रह्मलोक से व्रज में आ गए और ग्वाल-बालो तथा गाय-बछड़ों की नई सृष्टि देखकर चकित रह गए। भगवान को देखकर ब्रह्मा जी अपने वाहन हंस पर से कूद पड़े और श्री कृष्ण के चरण पकड़ लिए। हे प्रभो ! मै अज्ञान के वशीभूत होकर आपकी परीक्षा लेने चला था। हे जगन्नाथ ! मुझे माफ कीजिए, यह कहकर उन्होंने भगवान की स्तुति आरंभ कर दी। 

नौमीड्य तेभ्रsवपुषे तडिदंबराय गुंजावतंस परिपिच्छ लसन्मुखाय।  
वन्यस्र्तजे कवलवेत्रविषाणवेणु लक्ष्म श्रिये मृदुपदे पशुपंगजाय॥  
तत्ते नुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुंजान एवात्म्कृतम विपाकम। 
हृदवाग्वपुर्भि:विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्ति पदे स दायभाक ॥   

शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित ! भगवान के किसी भी आचरण में संदेह नहीं करना चाहिए। भगवान जो भी करते हैं सब ठीक ही करते हैं। भगवान सर्व समर्थ हैं। वे ब्रह्मा जी के द्वारा चुराए हुए ग्वाल-बाल और गाय-बछड़ों को वापस ला सकते थे। किन्तु इससे ब्रह्मा जी का मोह दूर नहीं होता और वे भगवान की उस दिव्य माया का ऐश्वर्य नहीं देख पाते। वास्तव में ब्रह्मा जी को अपने विश्वकर्ता होने का अभिमान था। भगवान ने अपनी इस दिव्यमयी लीला से उनके अभिमान को नष्ट किया। इसीलिए भगवान उन ग्वाल-बाल और बछड़ों को वापस न लाकर स्वयं ही वैसे ही और उतने ही ग्वाल-बाल और बछड़े बन गए। 

शेष अगले प्रसंग में ---------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 

-आरएन तिवारी

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