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Gyan Ganga: विशाल सागर के तट पर पहुँचते ही वानर सेना क्या करने लगी थी?

Gyan Ganga: विशाल सागर के तट पर पहुँचते ही वानर सेना क्या करने लगी थी?

Gyan Ganga: विशाल सागर के तट पर पहुँचते ही वानर सेना क्या करने लगी थी?

जैसा कि हमने पहले भी यह चर्चा की है, कि भगवान श्रीराम जी लंका नगरी की ओर, प्रस्थान करने का कदम तब उठाते हैं, जब उन्हें लगता है, कि अब समस्त वानर श्रीसीता जी से भेंट व एकाकार होने हेतु, उतने ही व्यग्र हैं, जितना कि वे स्वयं हैं। वानरराज सुग्रीव ने तत्काल ही समस्त वानरों, रीछ, भालुओं व अन्य बलवान योद्धाओं की सेनाओं के समूहों को एकत्र किया। सारे ही योद्धा एक से बढ़कर एक हैं। उनका उत्साह व बल देखेते ही बनता है। सभी एक स्थान पर एकत्रित हो गए। सभी अपने जीवन की इस महान यात्र पर निकलने को आतुर थे। ऐसा नहीं कि वानरराज सुग्रीव ने बस आदेश सा दिया और सभी वानर भालु चल पड़े। वास्तव में सभी लोग भगवान श्रीराम जी के आदेश व आर्शीवाद की प्रतीक्षा कर रहे थे। भगवान श्रीराम जी भी इस विशाल समूह के समक्ष आन पहुँचे।

श्रीराम जी को अपने समक्ष प्रकट देखते ही समस्त वीर बलवान योद्धाओं ने, प्रभु के जय घोषों की गुंजायेमान ध्वनि से, मानों नभ की छाती में अनेकों छेद कर डाले। इस ध्वनि में संपूर्ण सेना का अकथनीय उत्साह तो था ही, साथ में नभ की भाँति असीमित समर्पण भी था। यहाँ एक ऐसी सुंदर, गूढ़ व आध्यात्मिक घटना घटती है, जिसका वर्णन अक्सरा कथा सुनते व बाँचते हुए रह जाता है। घटना यह कि श्रीराम जी सभी वीरों पर अपनी पावन दृष्टि का संचार करते हैं। ऐसा एक भी वीर भालू अथवा वानर नहीं था, जिस पर श्रीराम जी की कृपा दृष्टि न पड़ी हो। अपने समक्ष सिर झुकाये समस्त वानर सेना को श्रीराम जी ने बड़ी रीझ से दृष्टिपात किया। एक-एक वानर को वे ऐसे निहार रहे हैं, मानों श्रीराम उन्हें कह रहे हों, कि हे वीरो! बस यही एक अवसर है, जिसे आप लोगों ने हाथ से फिसलने नहीं देना है। अब की बार अगर चूक गए, तो पता नहीं इस घड़ी को पाने में, और कितने जन्म लेने पड़ेंगे। इसलिए आज स्वयं से यह दृढ़ संकल्प करो, कि किसी भी प्रस्थिति में हम अपने संपूर्ण बल व सामर्थ का, सौ प्रतिशत लगा देंगे। पीछे हटने का तो आप में वैसे भी कोई विचार नहीं है। लेकिन तब भी राक्षसी विचारों से सदैव सावधान रहना है। सजगता, श्रद्धा व साहस का पल्लु कभी भी मत छोड़ना। सामने केवल अपना लक्ष्य ही दृष्टिपात हो। रास्ते में अगर प्राण शून्य होने की कठिन घड़ी भी आन पहुँचे, तो आपका लक्ष्य भेदन का संकल्प, इतना दृढ़ होना चाहिए, कि मृत्यु का देवता भी आपको देख कर, वापिस जाने को विवश हो पड़े। आपकी नस-नाड़ियों में रक्त नहीं, बल्कि अग्नि का प्रवाह प्रवाहित हो। बड़े-बड़े पर्वतों का सीना भी आपके समक्ष आकर मानों फट जाये। श्रीराम जी की मूक भाषा को हर कोई श्रवण कर रहा था। सभी का सीस झुका हुआ, यह प्रण कर रहा था, कि हे प्रभु! आप बस अपनी कृपा दृष्टि हम पर बनायें रखें। फिर देखिएगा, हम क्या से क्या कर जायेंगे। सारा कमाल तो बस आपकी कृपा का ही है। अन्यथा किसी तितली में क्या साहस, कि वह सागर को पार करने का संकल्प ले उठे। श्रीराम जी अपनी पावन दृष्टि का संचार कर ही इसलिए रहे थे, कि वानरों का यह संकल्प अपने अस्तित्व को पूर्ण कर सके-

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‘प्रभु पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना।।’

अब देखिए, श्रीराम जी की पावन दृष्टि समस्त वीरों पर क्या पड़ी, सब में एक से एक कलायें जन्म लेने लगी। आज से पूर्व तो केवल श्रीहनुमान जी ही आकाश मार्ग में उड़े थे, लेकिन आज एक नहीं, अपितु अनेकों वानर आकाश मार्ग के अनुगामी हो गए। जो वानर अथवा रीछ आकाश मार्ग से नहीं गए, वे पृथ्वी मार्ग का अनुगमन करते हैं। उनके शस्त्र के तो कहने ही क्या थे। उनके हाथों में बड़े-बड़े शिला खण्ड व वृक्ष ही उनके शस्त्र थे। उनके नखों रूपी शस्त्र से तो काल भी घबराता होगा-

‘नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।।’

वानर व भालु इतने उत्साहित हैं, कि उनकी चिंघाड़ों की गर्जना से, वनों के हाथियों के दिल भी पतले हो उठे हैं। वे दसों दिशायों से चिंघाड़े जा रहे हैं।

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इतना ही नहीं, इस महान इतिहासिक घटना में, एक ओर सुंदर घटना घट रही थी। वह यह कि श्रीराम जी सेना सहित जैसे ही सागर की ओर कूच करते हैं, चारों और शुभ शगुन होने लगते हैं। श्रीसीता जी के बाएँ अंग फड़कने लगते हैं। हालाँकि आज के युग में कुछ तथाकथित आधुनिक सोच के लोग शगुन-अपशगुन को नहीं मानते। लेकिन वास्तव में इसमें किसी भी प्रकार की अविज्ञानिक्ता अथवा अँधविश्वास नहीं है। अपितु यह तो एक स्वभाविक से प्राकृतिक लक्षण हैं। जैसे बारिश होने से पहले बादलों की गर्जना व काले मेघों के समूह हो जाना स्वाभाविक है। वैसे ही जब श्रीहरि किसी महाअभियान पर निकलते हैं, तो शगुन होना उनकी लीला की एक मर्यादा भर है-

‘जासु सकल मंगलमय कीती
तासु पयान सगुन यह नीती।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं।।’

चारों ओर जय-जयकार है। सेना के चलने से रास्ते में बिछी संपूर्ण घास ने भी, स्वयं को प्रभु के श्रीचरणों में न्यौछावर कर दिया। और इस प्रकार से श्रीराम जी, संपूर्ण सेना सहित सागर के तट पर जा उतरे। अनेकों रीछ वानर यहाँ तहाँ फल खाने लगे।

लंका प्रवेश से पहले, इतने विशाल सागर को पार करना एक बड़ी चुनौती थी। श्रीराम जी सागर पार करने के लिए, कौन से उपाय अपनाते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

-सुखी भारती

What was the monkey army doing as soon as it reached the shores of the ocean

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