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Gyan Ganga: भगवान जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं, यह बिलकुल सही बात है

Gyan Ganga: भगवान जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं, यह बिलकुल सही बात है

Gyan Ganga: भगवान जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं, यह बिलकुल सही बात है

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 

प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। 

मित्रों ! पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि ब्रह्मा जी ने भगवान श्री कृष्ण की परीक्षा लेने के लिए ग्वाल-बालों और गाय-बछड़ों को चुरा लिया। भगवान ने ग्वाल-बालों और गाय-बछड़ों की बिलकुल वैसी ही नई सृष्टि करके ब्रह्मा जी को आश्चर्य में डाल दिया।

आइए ! आगे के प्रसंग में चलते हैं--- 

शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित ! भगवान के किसी भी आचरण में संदेह नहीं करना चाहिए। भगवान जो भी करते हैं सब ठीक ही करते हैं। एक समय की बात है, विजयादशमी के दिन शस्त्र पूजन की परंपरा है। एक राजा पूजन कर रहे थे, संयोग कहिए, अचानक उनकी एक उंगली कट गई, जख्म अधिक था इसलिए उंगली का एक हिस्सा काटना पड़ा। राजा बड़े ही दुखी थे। उनको दुखी देखकर मंत्री ने कहा- 

राजन ! दुखी मत होइए ! भगवान जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं। यह सुनकर क्रोधित होकर राजा ने मंत्री जी को जेल में डाल दिया। राजा लोग शिकार प्रेमी होते हैं। कुछ दिनों के बाद ये राजा भी शिकार खेलने जंगल में गए। शिकार खेलते-खेलते अचानक मार्ग भ्रमित हो गए। कुछ भीलों ने मिलकर राजा को पकड़ लिया क्योंकि उन्हें बलि देने के लिए एक व्यक्ति की जरूरत थी। उन्हें क्या मालूम यह व्यक्ति कौन है? जब बलि के लिए राजा को देवी माँ के मंदिर में खड़ा किया। बलि देने के लिए सारी औपचारिकताएँ पूरी होने लगी तो भद्रकाली मंदिर के जो पुजारी थे उन्होंने कहा- अरे ! इसकी तो एक उंगली कटी हुई है, भद्रकाली खंडित बलि स्वीकार नहीं करती। ये खंडित है इसे हटाओ। अब राजा को हटा दिया गया। अब राजा सोचने लगे— मंत्री जी ने जो कहा था वो ठीक ही कहा था। भगवान जो करते हैं ठीक ही करते हैं। यदि हमारी उंगली नहीं कटी होती तो आज हमारी गर्दन ही कट जाती। सोचते विचारते घर आए, पूरी घटना मंत्री जी को सुनाई और बंधन मुक्त करके कहा- आपकी बात मान ली मंत्री जी ! पर एक बात समझ में नहीं आई। मेरी तो उंगली कटी थी इसलिए गर्दन कटने से बच गया किन्तु तुम अनावश्यक कुछ दिनों से जेल की हवा खा रहे हो, भगवान ने तुम्हारे ऊपर कौन-सी कृपा की। मंत्री जी ने कहा- सरकार आप से अधिक मुझ पर कृपा हुई। कैसे? मंत्री ने कहा- यदि आप मुझे जेल में नहीं डाले होते तो मैं भी आपके साथ शिकार खेलने गया होता आज तक कभी ऐसा हुआ है कि आप जाएँ और मुझे न ले जाएँ, आप तो खंडित थे इसलिए बच गए पर मैं तो अच्छा भला पूरा पंडित था आप तो चले आते गर्दन मेरी उड़ा आते। तो भगवान ने बहुत कृपा की, कि खंडित होने के कारण आप बच गए और जेल में होने के कारण मैं बच गया। 

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दृष्टांत:- एक लंगड़ा पूल पार कर रहा था, पूल हिलने लगा दूसरी छोर पर प्रभु खड़े थे, बचाने के लिए पुकारा किन्तु भगवान मुसकुराते हुए वहीं खड़े रहे। लंगड़ा बुरा-भला कहने लगा। धीरे-धीरे उस छोर पर पहुंचा, तो देखा, प्रभु पूल के खंभे को जो टूट गया था, ज़ोर से पकड़े हुए हैं। भगवान बिना बताए हमारी रक्षा करते हैं, इसीलिए संत कहते हैं--- दुख की घड़ी में न कोसना प्रभु को।

गौतम ऋषि ने अपनी पत्नी अहल्या को पत्थर होने का शाप दे दिया था। अहल्या जी ने क्षुब्ध मन से ऋषि का शाप शिरोधार्य किया, किन्तु जब रामावतार में प्रभु श्री राम ने दर्शन देकर अहल्या जी का उद्धार किया तब वही अहल्या अपने भाग्य की सराहना करते हुए कहने लगी..... 

गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में........... 

मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना।।
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।।
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।।

मेरे भाई-बहनों ! यह बात कहना तो बड़ा ही आसान है किन्तु विषमता के क्षणों में भगवान की कृपा की अनुभूति कर पाना बहुत कठिन है।

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व्यक्ति को चाहिए कि प्रत्येक क्षण भगवान की कृपा का अनुभव करे और प्रारब्ध के अनुसार जो सुख-दुख मिलता है उसे प्रभु का प्रसाद समझकर निर्विकार मन से भोग ले। प्रारब्ध क्या है ? हमारा संचित कर्म ही तो प्रारब्ध के रूप में हमारे सामने आता है। व्यक्ति कर्म करते वक्त आंखें बंद कर लेता है, जो होगा सो देखा जाएगा। खाओ पियो मौज करो। पर वही कर्म जब विपाक होकर आता है, तब व्यक्ति रोता है। 
हाय-हाय ! मैंने ऐसा क्या किया था, जो ये दिन देखने पड़े।

अरे ! किया था, तभी तो भुगत रहा है। 
श्री मदभागवत का पावन संदेश-- इंसान को अपना प्रारब्ध प्रसन्नता से भोगना चाहिए, क्योंकि यह हमारा ही तो है। आत्मकृतम् हमने ही तो बीज बोया था। जैसी करनी वैसी भरनी। 

“यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमाप्नुयात् अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्” ॥ 

इस संदर्भ में एक निर्गुण संत की पंक्तियाँ मुझे अच्छी लगती हैं। 
यार न मिली दिलदार ना मिली, एक दिन जाए तू अकेला तोहके यार ना मिली 
बोओगे बबूर त, अनार ना मिली एक दिन ----------------------------------    
शेष अगले प्रसंग में ..........  
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

- आरएन तिवारी

Whatever god does he does good that is right

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