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Gyan Ganga: जब विभीषण ने समझाया तो रावण क्यों और कैसे बौखलाया ?

Gyan Ganga: जब विभीषण ने समझाया तो रावण क्यों और कैसे बौखलाया ?

Gyan Ganga: जब विभीषण ने समझाया तो रावण क्यों और कैसे बौखलाया ?

रावण तो फिर रावण था। उसे भला कोई, कैसे कोई सीख दे सकता था। रावण ने देखा, कि मेरे भाई का मेरे प्रति प्रेम व समर्पण शून्य हो गया है। उसका दूध जैसे उज्ज्वल हृदय में, मानो खट्टे की बूँदें गिर गई हैं। अब यह हमारे लायक तो बचा ही नहीं है। मैंने तो बस इसके हृदय का भेद लेना था, सो ले लिया। अब भला इन दोनों दुष्टों से मेरा क्या स्नेह? मैं इन्हें दया व प्रेम की दृष्टि से भला क्यों देखूँ? मेरे ही समक्ष, मेरे ही शत्रु का गुनगान गाया जा रहा है। क्या यह मुझे स्वप्न में भी स्वीकार्य होगा?

‘रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ।।
माल्यवंत गह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जारी।।’

रावण अपने आप से बाहर होता हुआ बोला-अरे! कोई है यहाँ? जो इन दोनों को मुझसे दूर करेगा। ये दोनों मेरे ही समक्ष, मेरे ही शत्रु के महिमा गान कर रहे हैं, और कमाल देखो, कि मैं इन्हें सुने भी जा रहा हूँ? वाह, क्या बात है। मुझे अपने जीवन में यह समय भी देखना था?

माल्यवान ने देखा, कि रावण की वाणी ने तो सदा की ही भाँति, विष उगलना आरम्भ भी कर दिया है। ऐसे में, यह किसी की सुनेगा तो है नहीं। नाहक ही इससे माथा भिड़ाने का तो कोई लाभ नहीं। तो क्यों न, मैं इस सभा का साक्षी ही न बनूं? ऐसा सोचकर, माल्यावान तो वहाँ से चला गया। लेकिन श्रीविभीषण जी की उपस्थिति, सभा में जस की तस बनी रही। उन्हें रावण पर क्रोध भी नहीं आ रहा था। उल्टा श्रीविभीषण जी तो, यह सोच रहे हैं, कि रावण की मति, एक साधारण मति न होकर, कुमति में पलट चुकी है। जिस कारण रावण यह समस्त पाप कर रहा है। कुछ भी हो जाये, रावण को सुमति और कुमति के मध्य अंतर को समझना ही पड़ेगा। अन्यथा रावण का समस्त वैभव सीधे अर्श से फर्श पर आन गिरेगा। ऐसा विचार कर श्रीविभीषण जी रावण को संबोधित करते हुए कहते हैं-

‘सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
जहाँ सुमति कहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।’

निश्चित ही, श्रीविभीषण जी ने शत प्रतिशत उचित ही कहा था। कारण कि यह आवश्यक नहीं, कि अनेक प्रकार की संपत्तियां मिलकर भी हमें सुख दे पायें। क्योंकि सुख का संबंध संपत्ति से कभी भी नहीं होता। बल्कि सुख का मुख्य स्रोत तो, आँतरिक भक्तिमय हृदय से होता है। भक्ति का भूषण अगर नहीं है, तो समझना सब व्यर्थ है।

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मानो हमारे हाथ में बाहरी संपदा के अथाह भँडार आ गये। लेकिन अगर हमारी मति में पाप भरा हुआ है। हम विकारों से ग्रसित हैं। तो हमारी वह अथाह संपदा भी, हमारे विनाश का ही कारण बनेगी। लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी की भाँति, मानो हमारे पास प्रभु की पावन भक्ति से युक्त, सुमति है तो निश्चित ही हमें, कोई चिंता करने की आवश्यक्ता नहीं होती। क्योंकि जहाँ सुमति होती है, वहाँ नाना प्रकार की संपत्तियां तो वैसे ही प्रकट हो जाती हैं।

रावण के पास संसार के समस्त वैभव तो थे। लेकिन उन वैभवों में से आनंद की अनुभूति कैसे प्राप्त की जाये, यह ज्ञान उसे नहीं था। मानो किसी व्यक्ति के पास विधाता की कलम तो हो, लेकिन दुर्भाग्य से वह व्यक्ति अनपढ़ हो। तो आप ही सोचिए, कि क्या वह अनपढ़ व्यक्ति उस कलम से किसी का भी भाग्य लेखन कर पायेगा? ठीक ऐसे ही रावण के साथ था। उसके पास एक से एक, महान गुण व अतुलनीय शक्तियां थीं। लेकिन उन शक्तियों का प्रयोग कहाँ, कब और कैसे करना है, इसका ज्ञान उसे रत्ती भर नहीं था। ठीक यही सिद्धांत तो आज संसार में प्रत्येक व्यक्ति ने अपना रखा है। उसकी दौड़, आंतरिक स्तर पर न हो करके, पूर्णतः बाहरी माया तक सीमित हो चुकी है। मति में प्रभु का वास है, अथवा नहीं, इससे तो जीव को कोई सरोकार ही नहीं। जिसका परिणाम यह है, कि जीव अतिअंत अशांत व अस्थिर है। वह भाग तो बहुत गति से रहा है, लेकिन पहुँच कहीं नहीं रहा। पल्ले सिवा थकान के और कुछ नहीं आ रहा।

श्रीविभीषण जी रावण को अनेकों वेद पुराणों की कथाओं के माध्यम से समझाना चाहते हैं, लेकिन सब व्यर्थ जाता है। कारण कि श्रीविभीषण जी की सीख में, केवल रावण को समझाना भर नहीं था। अपितु वह सीख भगवान श्रीराम जी की महिमा से परिपूर्ण थी। जोकि रावण को किसी भी मूल्य पर स्वीकार्य नहीं था। रावण अपने भाई की सीख पर क्रोधित होता बोला-

‘जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
निपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।।
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं।।’

रावण श्रीविभीषण जी पर चिल्लाते हुए कहता है, कि तू कैसा दुष्ट है रे? मूर्ख, तू जीता तो सदा मेरा जिलाया हुआ है, पर हे मूढ़! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है। ऐसा क्या है उस वनवासी में। अरे दुष्ट! बता न, संसार में ऐसा कौन है, जिसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो।

रावण का क्रोध सातवें आसमाँ पर जा पहुँचा था। वह आपे से बाहर हो चुका था। ऐसे में रावण के असंख्य पापों में, एक और पाप जुड़ गया। पाप यह, कि रावण ने श्रीविभीषण जी को लात दे मारी। और कहा, कि अरे दुष्ट! मेरे नगर में रहकर, प्रेम उन तपस्वियों पर करता है। तो जा अपनी यह नीतियां भी, अब उन्हीं को जाकर बता।

श्रीविभीषण जी को लात पड़ने का अर्थ था, कि उनका संपूर्ण सम्मान माटी हो जाना। पूरी सभा में सन्नाटा छा गया। मानो एक पल के लिए, सबकी श्वाँसें ही थम गईं। देखते ही देखते, इतना बड़ा अनर्थ घट गया था। इतना होने पर भी श्रीविभीषण जी, रावण को अब भी बार-बार समझा रहे थे। क्षमा करें सज्जनों, समझा नहीं रहे थे। अपितु रावण के चरण तक पकड़ रहे थे। ऐसा इसलिए नहीं, कि वे स्वयं को दंडित मान कर क्षमा माँग रहे थे। अपितु इसलिए चरण पकड़ रहे थे, रावण कैसे भी यह मान जाये, कि श्रीराम जी ही सर्व शक्तिमान हैं एवं वही इस समय के ईश्वरीय अवतार हैं। इसके लिए मुझे रावण के चरणों में भी गिरना पड़े, तो मुझे कोई गम नहीं।

क्या रावण अब भी, श्रीविभीषण जी की सीख मान लेता है, अथवा श्रीविभीषण जी को लंका नगरी से निकाल कर ही दम लेता है? यह जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती

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