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प्रेस के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है उस पर हर मीडिया संस्थान को आत्मचिंतन करना चाहिए

प्रेस के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है उस पर हर मीडिया संस्थान को आत्मचिंतन करना चाहिए

प्रेस के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है उस पर हर मीडिया संस्थान को आत्मचिंतन करना चाहिए

उच्चतम न्यायालय ने टीवी समाचार सामग्री पर नियामकीय नियंत्रण की कमी पर अफसोस जताते हुए नफरत फैलाने वाले भाषण को 'बड़ा खतरा' बताया है। देखा जाये तो टीआरपी की प्रतिस्पर्धा में चैनल जिस तरह का कंटेंट परोस रहे हैं उससे हाल के समय में समाज में बड़े विवाद भी खड़े हुए हैं। मगर सरकार के लिए मुश्किल यह है कि जैसे ही वह मीडिया को सुझाव या निर्देश जारी करती है उस पर मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करने का आरोप लग जाता है। ऐसे में अदालत को ही 'स्वतंत्र और संतुलित प्रेस' के लिए कोई कदम उठाना होगा।

शीर्ष अदालत ने इस मामले में जो बड़ी बात कही है वह यह है कि यदि कोई टीवी समाचार एंकर, नफरत फैलाने वाले भाषण के प्रचार की समस्या का हिस्सा बनता है, तो उसे प्रसारण से क्यों नहीं हटाया जा सकता? यह ऐसा सवाल है जिस पर हर मीडिया संस्थान को सोचना चाहिए। यदि कोई समाचार प्रस्तोता राजनीतिक दलों का हथियार बने या अपना एजेंडा चलाये तो उस संस्थान की जिम्मेदारी बनती है कि वह राष्ट्रहित में ऐसे कार्यों को रोके। अदालत ने सही ही कहा, "सीधे प्रसारित किसी कार्यक्रम में, कार्यक्रम की निष्पक्षता की कुंजी एंकर के पास होती है। यदि एंकर निष्पक्ष नहीं है, तो वह वक्ता को म्यूट करके या दूसरी तरफ से सवाल न पूछकर जवाबी मत नहीं आने देगा। यह पूर्वाग्रह का प्रतीक चिह्न है।’’ अदालत ने कहा, "कितनी बार एंकर के खिलाफ कार्रवाई की गई है? मीडिया के लोगों को यह एहसास होना चाहिए कि वे बड़ी शक्ति वाले पदों पर बैठे हैं और उनका समाज पर प्रभाव है। वे समस्या का हिस्सा नहीं हो सकते।" न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि अगर न्यूज एंकर या उनके प्रबंधन के खिलाफ कार्रवाई की जाती है, तो सभी लाइन में आ जाएंगे।

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अदालत ने जो सवाल उठाये हैं उसमें यह भी प्रमुख है कि प्रिंट मीडिया के विपरीत, समाचार चैनलों के लिए कोई भारतीय प्रेस परिषद नहीं है। देखा जाये तो सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। डिजिटल मीडिया के लिए तो सरकार हाल ही में नीति बनाकर उसको कड़े नियमन के दायरे में लाई है और लगातार फर्जी समाचार चलाने वाली वेबसाइटों और यूट्यूब चैनलों पर कार्रवाई भी की गयी है जोकि स्वागतयोग्य है। लेकिन सवाल उठता है कि टीवी समाचार चैनलों पर कार्रवाई से सरकार अक्सर बचती हुई क्यों दिखती है?

अदालत ने साथ ही मीडिया ट्रायल पर भी सवाल उठाये हैं। देश भर में नफरती भाषणों की घटनाओं पर अंकुश लगाने और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही न्यायमूर्ति केएम जोसेफ और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की पीठ ने एअर इंडिया के एक विमान में एक व्यक्ति द्वारा महिला सहयात्री पर कथित तौर पर पेशाब किए जाने की हालिया घटना की ओर इशारा करते हुए कहा, "उसका नाम लिया गया। मीडिया के लोगों को समझना चाहिए कि उसके खिलाफ अभी भी जांच चल रही है और उसे बदनाम नहीं किया जाना चाहिए। हर किसी की गरिमा होती है।" इसके अलावा भी कई ऐसे वाकये सामने आये हैं जब किसी घटना के बाद संबंधित पक्षों को टीवी स्टूडियो में बैठाकर बहस कराई जाती है जिससे जांच प्रभावित होती है और पुलिस तथा प्रशासन पर नाहक ही दबाव भी पड़ता है।

बहरहाल, मीडिया की छवि निष्पक्ष संस्थान की होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हर मीडिया संस्थान की छवि ऐसी बन गयी है कि उसका नाम सुनते ही लोग बता देते हैं कि वह किसी पार्टी के मुखपत्र के रूप में काम करता है। इस छवि को बदलने का काम मीडिया को ही करना है। समय आत्मचिंतन का है क्योंकि समाज में शांति बनाये रखने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं बल्कि हर नागरिक की है। मीडिया जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाता है तो उसे अपनी जिम्मेदारी का भी भलीभांति निर्वहन करना ही होगा।

- गौतम मोरारका

Why supreme court said media should not create division

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