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एक समुदाय को धार्मिक कानून से कई ऐसे अधिकार मिले हैं जो मानवता के विपरीत हैं

एक समुदाय को धार्मिक कानून से कई ऐसे अधिकार मिले हैं जो मानवता के विपरीत हैं

एक समुदाय को धार्मिक कानून से कई ऐसे अधिकार मिले हैं जो मानवता के विपरीत हैं

आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे भारत देश के सभी धर्मों के नागरिकों के लिये एक समान धर्मनिरपेक्ष कानून होना चाहिये। संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के माध्यम से इसको लागू करने की ज़िम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी। लेकिन पूर्व की सरकारों ने वोट बैंक के चलते समान नागरिक संहिता को लागू नहीं होने दिया, अब भारतीय जनता पार्टी एवं नरेन्द्र मोदी सरकार इस बड़ी विसंगति को दूर करने के लिये तत्पर हुई है, जिसके लागू होने से देश सशक्त होगा। विडम्बना है कि मुस्लिम समुदाय को उनके शरीयत कानून से अनेक ऐसे अधिकार मिले हुए हैं, जो मानवता के विपरीत हैं और मानव मूल्यों एवं भारत के संविधान का हनन है। यह कानून एक मुस्लिम पुरुष को अपनी मौजूदा पत्नियों की सहमति के बिना चार विवाह करने की अनुमति देता है, वहीं बाल-विवाह एवं यौन शोषण को जायज मानता है। जबकि देश में बाल विवाह कानूनन अपराध है। केरल हाईकोर्ट ने एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए समान कानून संहिता को लागू किया है।

लड़की की शादी 18 साल की उम्र और लड़के की शादी 21 साल के बाद ही की जा सकती है। यदि इस उम्र सीमा से नीचे के लड़के या लड़की की शादी की जाती है, तो शादी अवैध घोषित मानी जाती है। इतना ही नहीं बाल विवाह कराने वालों को जेल भी हो सकती है। इसी तरह यौन शोषण का मामला है। बाल विवाह एवं यौन शोषण दोनों ही अपराध है। जाहिर है कि बच्चे चाहे जिस भी धर्म के हों, उनके खिलाफ होने वाले अपराधों को समान नजर से देखना और बरतना एक स्वाभाविक कानूनी प्रक्रिया है। नाबालिग बच्चों को उनके खिलाफ यौन अपराधों और शोषण से सुरक्षा देने के लिए पाक्सो कानून बनाया गया। लेकिन भारत में मुस्लिमों के लिए शरीयत कानून को भी मान्यता मिली हुई है जिसके कारण बच्चों पर हो रहे अपराधों पर दोयम दर्जा अपनाया जाता है, इसको लेकर कई बार सामुदायिक परंपराओं के लिहाज से भी इस प्रावधान की प्रासंगिकता को कसौटी पर रखने की कोशिश की जाती है। केरल उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के बाद इसी द्वंद्व एवं दोहरे नजरिये पर स्पष्ट राय दी है, जिसमें किसी धर्म के तहत बनाए गए अलग नियम के मुकाबले पाक्सो कानून को न्याय का आधार बनाया गया है। यह एक अनूठी पहल है जिसमें पाक्सो कानून को धर्म नहीं, इंसान को एक ही नजर से देखने का उपक्रम है। यही इंसाफ का तकाजा है और उसकी बुनियाद है।

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केरल हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा कि मुस्लिम कानून के तहत नाबालिगों की शादी पॉक्सो एक्ट से बाहर नहीं हो सकती है। यदि दूल्हा या दुल्हन नाबालिग है और मुस्लिम कानून के तहत उनकी शादी भले ही वैध हो, लेकिन पॉक्सो एक्ट उन पर भी लागू होगा। निश्चित ही मुस्लिम धर्म की मान्यता का हवाला देते हुए अब तक हो रहे बाल विवाह एवं बच्चों के यौन शोषण पर नियंत्रण स्थापित करने की दृष्टि से एक समानता एवं अपराध मुक्ति का परिवेश निर्मित होगा। यानी आज आवश्यकता इस बात की है कि मुस्लिम समुदाय में बाल-विवाह एवं वैवाहिक संबंध को पुनः परिभाषित किया जाए और अधिकारों और कर्तव्यों का पारदर्शी तरीके से परिमार्जन, परिवर्तन एवं संशोधित किया जाए। मुस्लिम समाज में तलाक, बहु-विवाह, बाल विवाह की पूर्ण उन्मुक्ति अन्य समुदायों के पतियों को इस्लाम में परिवर्तित करके अपनी पत्नियों को छोड़ने, अनेक पत्नियां रखने, बाल-यौन-शोषण और उनकी जुड़ी कानूनी कार्यवाही से बचने में सक्षम बनाती है। मूल्यहीनता के जिस भंवर में मुस्लिम समाज धंसता जा रहा है उसे समय रहते उससे निकाला जाए, क्योंकि इससे प्रभुत्व, प्रभाव, धार्मिक आग्रहों और वर्चस्व की लड़ाई में कुंठित मानसिकता ही हावी होती है। भले ही अब बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों और शोषण के संदर्भ में पाक्सो कानून और किसी धर्म के विशेष नियमों के बीच की स्थिति को लेकर नई बहस खड़ी हो, कानून की समानता को लागू किया ही जाना चाहिए।

केरल उच्च न्यायालय ने एक साहसिक कदम उठाते हुए न्याय की तुला में सबकी समानता की बात को उजागर किया है। कोर्ट ने बाल विवाह को मानवाधिकारों का भी उल्लंघन बताया। क्योंकि बाल विवाह के कारण बच्चा सही से विकसित नहीं हो पाता है। यह सभ्य समाज के लिए एक बुराई है। मुस्लिम कानून के जरिये बाल-अपराध को खुली छूट का फायदा यह समुदाय उठाता रहा है। लेकिन पॉक्सो एक्ट को परिभाषित करते हुए कोर्ट ने कहा कि ये कानून शादी की आड़ में बच्चों के साथ शारीरिक संबंध बनाने से रोकता है। जैसा कि अक्सर कहा जाता है, एक कानून लोगों की इच्छा की अभिव्यक्ति या प्रतिबिंब है। आजकल केरल न्यायालय के फैसले के साथ-साथ श्रद्धा हत्याकांड के विविध पक्षों पर बहस हो रही है और कहीं ‘लव जिहाद’ और ‘घर वापसी’ जैसे मुद्दों पर दंगल चल रहा है। नया भारत निर्मित करने की बात हो रही है, ऐसे में एक धर्म-विशेष के अलग कानून होने की स्थितियों पर पुनर्विचार अपेक्षित है। क्यों मुस्लिम कानून के हिसाब से नाबालिग की शादी वैध मानी जाये? भले ही इस सवाल को केरल हाईकोर्ट ने पूरी तरह से स्पष्ट करते हुए कहा कि पॉक्सो एक्ट एक विशेष कानून है, यह विशेष रूप से बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा देने के लिए बनाया गया है। एक बच्चे के खिलाफ हर प्रकार के यौन शोषण को अपराध माना जाता है। नाबालिग विवाह को भी इससे बाहर नहीं रखा गया है। पॉक्सो एक्ट को बाल शोषण से संबंधित न्यायशास्त्र से उत्पन्न सिद्धांतों के आधार पर बनाया गया है। ये कानून कमजोर, भोले-भाले और मासूम बच्चों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है। इस कानून के तहत बच्चों की यौन अपराधों से रक्षा की जाती है। इसमें नाबालिग विवाह को यौन शोषण के रूप में ही स्पष्ट किया गया है।

यह उजला सच है कि पाक्सो कानून के प्रभावी होने के बावजूद हिन्दू हो या मुसलमान एवं अन्य धर्मों को मानने वाले समुदायों में बाल विवाह के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं। हिन्दुओं में अक्षय तृतीया के मौके पर होने वाले बाल विवाह आज भी प्रशासन के लिए चुनौती बने रहते हैं। इसलिए सभी पक्षों को इस मसले पर सोच-समझ कर एक ठोस निष्कर्ष तक पहुंचने की जरूरत है, जिसमें नाबालिगों को हर स्तर के अपराध से सुरक्षित किया जा सके। बाल-विवाह एवं उनका यौन शोषण पर लगाम और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना आज हर तरह से आवश्यक है। भारत समाज में बच्चों के खिलाफ हो रहे अत्याचार एवं हिंसा के लिये न जाने कितने लोग जिम्मेदार हैं। समय रहते जागना, जगे रहना और दूसरों को जगाने का सिलसिला बन जाना चाहिए। किसी भी धर्म के हों, यदि हम बच्चों के साथ खड़े नहीं होंगे, तो दरअसल अपने हिस्से की संवेदनाओं, जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों को घटा देंगे, अपने मासूम बच्चों को कमजोर कर देंगे। घरों में कैद बच्चियां जो परिवार, समाज रचेंगी, वह भी कमजोर ही होगा। संयुक्त राष्ट्र महासचिव को केवल आंकड़े नहीं गिनाने चाहिए, बल्कि एक धर्म-विशेष के बच्चों के हो रहे शोषण एवं अत्याचार के लिये दुनिया में सार्थक मुहिम का सूत्रपात करना चाहिए। दुनिया की तमाम सरकारों से बच्चों के हाल पूछना चाहिए, उनके हो रहे बाल-विवाहों एवं यौन शोषण को रोकने क उपाय सुझाये जाने चाहिए।

निर्विवाद रूप से बाल विवाह मानवाधिकारों का उल्लंघन है, धर्म-विशेष का होने से उसे आरक्षण नहीं मिल सकता। समाज में प्रचलित परंपराओं और रीतियों में अगर कभी कोई खास पहलू किसी पक्ष के लिए अन्याय का वाहक होता है, तो उसके निवारण के लिए व्यवस्थागत इंतजाम किए जाने ही चाहिए। मगर ऐसे मौके अक्सर आते रहते हैं, जब परंपराओं और कानूनों के बीच विवाद एवं द्वंद्व की स्थिति पैदा हो जाती है। कानून के सामने भी ऐसा द्वंद्व रहा है। इसलिये केरल हाई कोर्ट का ताजा फैसला इसलिये बेहद अहम माना जा रहा है, क्योंकि इसी तरह के मामलों में पहले तीन अन्य उच्च न्यायालयों ने अठारह साल से कम उम्र की लड़की की शादी के मामले को पर्सनल लॉ के तहत सही बता कर खारिज कर दिया था। पर केरल में एक सदस्यीय पीठ के सामने आए इस मामले में जांच के बाद एक अलग पहलू यह भी पाया गया कि नाबालिग लड़की के माता-पिता की जानकारी के बिना आरोपी ने उसे बहला-फुसला कर अगवा किया था। ऐसे में किसी भी धार्मिक कानून के दायरे में खुद भी इस पर विचार किया जाना चाहिए कि ऐसा विवाह कितना सही है। ऐसा संक्रमणग्रस्त समाज मूल्य और नैतिकता से परे एक बीमार समाज को जन्म देगा।

-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

A community has got many rights from religious law which are contrary to humanity

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