Sardar Patel death anniversary: आरएसएस, अल्पसंख्यक समुदायों और चीन को लेकर सरदार के विचार, वर्तमान परिदृश्य में कितने असरदार?
चीन ने शांति की बातों के माध्यम से हमें केवल गुमराह करने की ही कोशिश की है। चीनी सैनिकों की घुसपैठ पर हमारे विरोध को जिस लहजे में खारिज किया गया, वो बिल्कुल ठीक नहीं था। चीन का ये रुख दोस्त जैसा तो कतई नहीं बल्कि दुश्मन जैसा जरूर है।" ये बातें न तो गलवान घाटी में हिंसक झड़प और भारतीय जवानों की शहादत के बाद कही गई और न ही अरुणाचल के तवांग में चीनी सैनिकों संग हालिया झड़प के बाद सामने आई। बल्कि चीन के बारे में ये बात भारत के पहले गृह मंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने प्रिय जवाहरलाल से कही थी। स्वतंत्र भारत को आकार देने वाले त्रिमूर्ति' के अन्य सदस्यों जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के विपरीत सरदार पटेल हमेशा कर्मशील व्यक्ति और अपने विचारों और विश्वासों पर बेबाकी से अपनी बात रखने वाले राजनेता के रूप में जाने जाते है। सरदार ने अपने लंबे राजनीतिक जीवन में कई सार्वजनिक भाषण दिए, जिन्हें एकत्र और प्रकाशित किया गया है। ये तमाम उनके पत्रों के साथ और निश्चित रूप से उनके कार्य, भारत के लिए उनकी प्रतिबद्धताओं और उनकी आकांक्षाओं की काफी विस्तृत तस्वीर देते हैं। आज के वर्तमान दौर में इन तीन विषयों पर पटेल के विचार हैं उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि वे भारत के नवजात गणराज्य के लिए थे।
पटेल ने आरएसएस पर बैन क्यों लगाया
द इंडियन एक्सप्रेस में क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट ने 6 जनवरी, 1948 को लखनऊ में दिए पटेल के एक भाषण का जिक्र करते हुए बताया कि उन्होंने हिंदू महासभा को कांग्रेस के साथ विलय करने के लिए आमंत्रित किया। नेहरू की परोक्ष आलोचना करते हुए उन्होंने आरएसएस के सदस्यों को भी यही निमंत्रण देते हुए कहा था कि कांग्रेस में जो लोग सत्ता में हैं, उन्हें लगता है कि अधिकार के बल पर वे आरएसएस को कुचलने में सक्षम होंगे। आप डंडा का उपयोग करके किसी संगठन को कुचल नहीं सकते। डंडा चोरों और डकैतों के लिए होता है। वे देशभक्त हैं जो अपने देश से प्यार करते हैं। केवल उनके विचार की प्रवृत्ति को मोड़ा जाता है। उन्हें कांग्रेसियों को प्यार से जीतना है।''बेशक, 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उन्होंने प्रतिबंध लगाते हुए चिट्ठी में कहा था, ''इसमें कोई दो राय नहीं कि आरएसएस ने हिन्दू समाज की सेवा की है। जहां भी समाज को जरूरत महसूस हुई, वहां संघ ने बढ़-चढ़कर सेवा की। ये सच मानने में कोई हर्ज नहीं है। पर इसका एक चेहरा और भी है, जो मुसलमानों से बदला लेने के लिए उन पर हमले करता है। हिन्दुओं की मदद करना एक बात है, लेकिन गरीब, असहाय, महिला और बच्चों पर हमला असहनीय है।'' 4 फरवरी 1948 को सरदार पटेल के नेतृत्व वाले गृह मंत्रालय ने प्रतिबंध की घोषणा करते हुए अपनी विज्ञप्ति में कहा, "...इसमें कोई दो राय नहीं कि आरएसएस ने हिन्दू समाज की सेवा की है। जहां भी समाज को जरूरत महसूस हुई, वहां संघ ने बढ़-चढ़कर सेवा की। ये सच मानने में कोई हर्ज नहीं है। पर इसका एक चेहरा और भी है, जो मुसलमानों से बदला लेने के लिए उन पर हमले करता है। हिन्दुओं की मदद करना एक बात है, लेकिन गरीब, असहाय, महिला और बच्चों पर हमला असहनीय है।' पटेल के मुताबिक गांधी की हत्या में हिंदू महासभा के उग्रपंथी गुट का हाथ था। सरदार पटेल ने उस वक्त कहा कि इन परिस्थितियों में यह सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है कि वह हिंसा के इस उग्र रूप को फिर से प्रकट होने से रोकने के लिए प्रभावी उपाय करे और इस दिशा में पहले कदम के रूप में, उन्होंने संघ को एक गैरकानूनी संघ घोषित करने का निर्णय लिया है। वह स्पष्ट थे कि प्रतिबंध हटाया जा सकता है - लेकिन केवल तभी जब आरएसएस उनकी शर्तों से सहमत हो, जैसे कि संगठन के लिए एक संविधान का मसौदा तैयार करना, और संविधान और ध्वज के प्रति वफादारी दिखाना।
पटेल को क्यों कहा जाता था आरएसएस का समर्थक
पटेल ने आरएसएस के प्रति सहानुभूति रखने वाले शख्स के रूप में देखे जाने के सवाल पर भी अपने विचार व्यक्त किए है। मार्च 1949 में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि आपको याद होगा कि एक समय था जब लोग मुझे आरएसएस का समर्थक कहते थे। कुछ हद तक यह सच भी था क्योंकि ये नौजवान साहसी, साधन संपन्न और साहसी थे, लेकिन थोड़े पागल भी थे। मैं उनकी वीरता, शक्ति और साहस का उपयोग करना चाहता था और उन्हें उनकी सच्ची जिम्मेदारियों और उनके कर्तव्य का एहसास कराकर उनके पागलपन का इलाज करना चाहता था। प्रशासक के रूप में, पटेल स्पष्ट थे कि सरकारी कर्मचारी आरएसएस में शामिल नहीं हो सकते, यह मानते हुए कि आधिकारिक पद पर किसी का भी सांप्रदायिक संगठनों से संबंध नहीं होना चाहिए।
अल्पसंख्यकों पर सरदार पटेल के विचार
पटेल का मानना था कि जिन लोगों ने खुद को पहले मुसलमान के रूप में देखा उनके पास पाकिस्तान को चुनने का विकल्प था। जो लोग अब भारत में थे, उनका कर्तव्य था कि वे "अल्पसंख्यक-बहुसंख्यकों के वर्गीकरण को भूल जाएं और एक के रूप में आगे बढ़ें। 25 मई, 1949 को संविधान सभा में एक भाषण में इस सवाल पर कि क्या धार्मिक अल्पसंख्यकों को विधायी निकायों में आरक्षण मिलना चाहिए, पटेल ने कहा, “जहां तक अन्य समुदायों का संबंध है, मुझे लगता है कि जब हम मिले तो पर्याप्त समय दिया गया था फरवरी में सलाहकार समिति में जब इन प्रस्तावों को अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों की ओर से लाया गया था, तो अपने स्वयं के निर्वाचन क्षेत्रों, अपने समुदायों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों से परामर्श करने के लिए पर्याप्त समय दिया गया था। अल्पसंख्यकों को किसी विशेष पद पर हड़बड़ी में बिठाना हमारा उद्देश्य नहीं है। यदि वे वास्तव में ईमानदारी से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस देश की बदली हुई परिस्थितियों में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की वास्तविक नींव रखना सभी के हित में है, तो अल्पसंख्यकों के लिए अच्छाई पर भरोसा करने से बेहतर कुछ नहीं है। इसी तरह यह भी सोचना बहुत दूर की बात है कि अल्पसंख्यक क्या महसूस करते हैं और हम उनकी स्थिति में कैसा महसूस करेंगे, अगर हमारे साथ उस तरह का व्यवहार किया जाता है, जिस तरह से उनके साथ व्यवहार किया जाता है। लेकिन लंबे समय में, यह सभी के हित में होगा कि हम भूल जाएं कि इस देश में बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक जैसी कोई चीज है और भारत में केवल एक ही समुदाय है।
चीन पर सरदार पटेल के विचार
7 नवंबर, 1950 को पटेल ने नेहरू को एक लंबा पत्र लिखा जिसमें उन्होंने तिब्बत और भारत पर चीनी मंशा के बारे में अपनी आशंकाओं का विवरण दिया। इतिहास गवाह है कि चीन के बारे में पटेल का अनुमान चतुर और भविष्यदर्शी था। पटेल ने लिखा, "... हमें इस बात पर विचार करना होगा कि तिब्बत पर चीन के जबरन अधिग्रहण जैसा कि हम जानते थे, और चीन के लगभग हमारे द्वार तक विस्तार के परिणामस्वरूप अब हमारे सामने कौन सी नई स्थिति है। पूरे इतिहास में हम शायद ही कभी अपने उत्तर-पूर्व सीमांत के बारे में चिंतित रहे हैं। हिमालय को उत्तर से किसी भी खतरे के खिलाफ एक अभेद्य बाधा माना गया है। हमारे बीच तिब्बत के रूप में एक दोस्त था जिसने हमें कोई परेशानी नहीं दी। चीनी विभाजित थे... चीन अब विभाजित नहीं है। यह एकजुट और मजबूत है। सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था। नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी में पटेल ने लिखा था कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत पर कब्जे के साथ ही अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। गृहमंत्री सरदार पटेल ने नवम्बर, 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करते हुए लिखा- "मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि चीन सरकार हमें शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आडम्बर में उलझा रही है। मेरा विचार है कि उन्होंने हमारे राजदूत को भी "तिब्बत समस्या शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने" के भ्रम में डाल दिया है। मेरे विचार से चीन का रवैया कपटपूर्ण और विश्वासघाती जैसा ही है।" सरदार पटेल ने अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को "किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा" कहा है। -अभिनय आकाश
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