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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को बदल रहा है या सिर्फ अपने बारे में भ्रम दूर कर रहा है ?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को बदल रहा है या सिर्फ अपने बारे में भ्रम दूर कर रहा है ?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को बदल रहा है या सिर्फ अपने बारे में भ्रम दूर कर रहा है ?

क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उदार हो रहा है? आखिर क्या वजह है कि अपने स्वयंसेवकों के बीच परम पूज्य के रूप में प्रतिष्ठित संघ प्रमुख मोहन भागवत मुस्लिम समुदाय के प्रमुख लोगों से मिलने के लिए मजबूर हुए हैं। ऐसे कई और सवाल हैं, जो इन दिनों ना सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप को मथ रहे हैं, बल्कि संघ के कार्यकर्ताओं के बीच उठे हैं। इसकी वजह है, हाल के दिनों में मुस्लिम बुद्धिजीवियों और इमामों- उलेमाओं से मोहन भागवत की मुलाकात। हाल ही में संघ प्रमुख ने ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के प्रमुख इमाम डॉ. इमाम उमर अहमद इलियासी से भेंट की थी। इसके पहले संघ के अस्थायी मुख्यालय
उदासीन आश्रम में संघ प्रमुख से पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी, दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग समेत कई मुस्लिम बौद्धिकों ने संघ प्रमुख से भेंट की थी। अव्वल तो ऐसी भेंट-मुलाकातों का स्वागत होना चाहिए? लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। इसकी वजह है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पारंपरिक छवि।

-भारत में अब तक जो नैरेटिव रहा है, उसमें संघ को लेकर यह मान्यता रही है कि वह मुस्लिम विरोधी है। इसकी वजह यह रही है कि संघ को लेकर जो नैरेटिव रहा है, उसकी वजह से यह सोच स्थापित हो ही गई है।

-संघ विरोधियों ने इस नैरेटिव को बड़े जतन से स्थापित किया है। इसके लिए उन्होंने कभी संघ के दूसरे प्रमुख माधव सदाशिव गोलवलकर की पुस्तक ‘ब्रंच ऑफ थॉट्स’ का हवाला दिया तो कभी राममंदिर आंदोलन का।

-राममंदिर आंदोलन के दौरान एक नारा बहुत उछलता रहा है, अभी तो यह झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है। ऐसे नारों के हवाले से भी संघ को मुस्लिम विरोधी ठहराया जाता रहा है। इसके साथ यह भी सच है कि संघ के किसी प्रमुख व्यक्ति ने खुलकर ऐसी राय नहीं जाहिर की है, जो मुस्लिम विरोध में जाती है। मुस्लिम विरोध को लेकर अन्य कई संगठनों ने जरूर वक्त-बेवक्त बातें की हैं।

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-वैसे गोलवलकर की बात के संदर्भ में संघ प्रमुख 2019 में कह चुके हैं कि विचार समय के साथ कदमताल करने के लिए परिवर्तित होते हैं।

संघ एक बात पर जोर देता रहा है। उसके लिए राष्ट्र और मातृभूमि पहले है। संघ के अंदरूनी दायरे में एक बात अक्सर कही जाती है। यह कि व्यक्ति से बड़ा संगठन होता है, संगठन से बड़ा समाज होता है और समाज से बड़ा देश होता है। भारत और राष्ट्र को लेकर जो वैदिक और पारंपरिक भारतीय अवधारणा रही है, उस अवधारणा के तहत संघ हिंदुस्तान में पैदा हुए हर व्यक्ति को हिंदू ही मानता है। ऐसी बात विनायक दामोदर सावरकर भी कहते रहे। संघ चूंकि इसी नजरिए से हिंदुस्तान, हिंदू और हिंदुत्व की व्याख्या करता रहा है, इसलिए एक धारणा यह बन गई कि संघ मुसलमानों का विरोधी है। इस अवधारणा को पल्लवित और पोषित करने में वे राजनीतिक ताकतें हमेशा सक्रिय रहीं, जिनकी राजनीति अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के साथ ही अल्पसंख्यकों में भय बनाए रखने की मजबूत बुनियाद पर टिकी रही।

संघ के पांचवें प्रमुख कुप्प सी सुदर्शन के पहले तक संघ अपना पक्ष मीडिया और दूसरे माध्यमों के जरिए रखने से परहेज करता रहा है। सुदर्शन के दौर में पहली बार संघ ने मीडिया से संपर्क के लिए साधन विकसित करने शुरू किए। इस वजह से भी संघ को लेकर ऐसी अवधारणा बनी कि उसकी पूरी की पूरी वैचारिकी सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम विरोध पर ही टिकी है। कमोबेश इस सोच के शिकार उसके कार्यकर्ता भी रहे। हालांकि यह भी विचारणीय है कि आखिर संघ कट्टर मुस्लिम विरोधी ही होता तो उसके प्रमुख कार्यकर्ता इंद्रेश कुमार की पहल पर 2002 में राष्ट्रीय मुस्लिम मंच क्यों गठित होता। अगर संघ मुस्लिम विरोधी ही होता तो इंद्रेश कुमार की संघ के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में प्रतिष्ठा संघ के अपने दायरे में क्यों बनी रहती?

देश विभाजन भारतीय इतिहास का एक ऐसा अध्याय है, जिसे संघ ही क्यों, राष्ट्रीय विचारधारा आज तक स्वीकार नहीं कर पाई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्विराष्ट्रवाद का विरोधी रहा है। इसे लेकर संघ को कभी उरेज नहीं रहा। हाल ही में संघ के सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने राष्ट्र को लेकर जो कहा है, वह संघ की वैचारिकी ही नहीं, राष्ट्र की उसकी अवधारणा को समझने का सूत्र हो सकती है। उन्होंने कहा है, ''राष्ट्र'' लोक यानी लोग, संस्कृति और मातृभूमि से मिलकर बना है। दीनदयाल उपाध्याय इसे चित्ति यानी मानस लोक का विस्तार मानते थे। संघ को अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ लोगों की उस वैचारिकी से एतराज रहा है, जिसके लिए राष्ट्र से पहले उनका मजहब रहा है। डॉक्टर अंबेडकर ने भी अल्पसंख्यक समुदाय की इस अवधारणा को लक्षित किया है। उन्होंने लिखा है कि उनके मन में एक साथ दो मुल्क होते हैं, पहला है मजहब, देश उसके बाद आता है। शायद यह वैचारिकी भी संघ को अल्पसंख्यक विरोधी साबित करने का आधार बनती रही है। यही वजह है कि संघ प्रमुख मुस्लिम बौद्धिकों और अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख लोगों से मिलते हैं तो सवाल उठते हैं। सवाल सिर्फ बाहर से ही नहीं उठते, बल्कि कार्यकर्ता समुदाय के बीच से भी उठते हैं। वैसे, ऐसा नहीं है कि संघ प्रमुख पहली बार मुस्लिम बौद्धिकों से मिल रहे हैं।

इसके पहले मुसलमानों के ही प्रमुख संगठन जमीअत-उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी से संघ प्रमुख ने 30 अगस्त 2019 को दिल्ली के झंडेवालान स्थित संघ मुख्यालय में मुलाकात की थी। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के मार्गदर्शक इंद्रेश कुमार की पहल पर हुई इस भेंट की उन दिनों बहुत चर्चा हुई थी। तब देश में राम मंदिर को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने वाला था।

-सुप्रीम कोर्ट ने ने 9 नवंबर 2019 को फैसला दिया था। तब देश को आशंका थी कि सांप्रदायिक तनाव फैलेगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। माना गया कि इसकी वजह संघ प्रमुख की मदनी से हुई यह मुलाकात ही बड़ी वजह रही।

-संघ प्रमुख की इन मुलाकातों के संदर्भ में संघ विरोधी यह भी कहने से भी नहीं हिचकते कि इस्लामी देशों के दबाव में ऐसा किया गया है। तर्क यह भी दिया जाता है कि संघ अपने राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को बड़ा आधार देने के लिए ऐसा कर रहा है। इस्लामी देशों का तर्क देने वालों को याद रखना होगा कि वैश्वीकरण के दौर में देश की मौजूदा भूराजनीतिक परिस्थिति को किनारे नहीं रखा जा सकता।

-2011 की जनगणना के हिसाब से देश की आबादी में करीब 14.23 प्रतिशत हिस्सेदारी मुस्लिम समुदाय की है।

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-एक अनुमान के मुताबिक, देश की मुस्लिम जनसंख्या करीब 19.2 करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक, दुनिया की कुल मुस्लिम आबादी का 11 प्रतिशत हिस्सा अकेले भारत में ही बसता है। जाहिर है कि जनसंख्या की इतने बड़े हिस्से से संवाद ना रखना किसी भी संगठन की समझदारी नहीं मानी जाएगी। 2019 में दोबारा सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मशहूर नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ में ‘सबका विश्वास’ भी जोड़ दिया। इसका भी मतलब यह भी है कि सरकार को सबका भरोसा चाहिए। संघ के प्रमुख और पुराने कार्यकर्ता कहते हैं कि संघ प्रमुख उस वैचारिक कुहासे को साफ करने की कोशिश कर रहे हैं, जो माहौल में देश की आजादी के दौर से ही छाए हुए हैं। इसीलिए संघ प्रमुख कभी गोरक्षा के नाम पर हुड़दंग का विरोध करते हैं तो कभी किसी मस्जिद में अनावश्यक मीनमेख निकालने का विरोध करते हैं। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि हिंदुत्व को संघ भूल गया है। बल्कि वह हिंदुत्व के अपने व्यापक वैचारिक आधार को ही विस्तारित कर रहा है। वैसे संघ हर साल दशहरा पर आयोजित होने वाले अपने प्रमुख कार्यक्रम में ऐसे लोगों को बुलाता रहा है, जो उसकी वैचारिकी को स्वीकार नहीं करते।

संघ मानता रहा है कि सबकी राय को जानना चाहिए और लोग भी उसकी राय जानें। भले ही वे इसे स्वीकार करें या न करें। आखिर में संघ प्रमुख का एक मशहूर बयान याद आता है। 2013 में उन्होंने किसी अन्य संदर्भ में कहा था, ‘परिवर्तन अपरिवर्तनीय है।’ वैचारिकी के मामले में भी संघ आलोचक उनके इस वक्तव्य को रख सकते हैं।

-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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