किसी की जेब में किसी की तिजोरी में छोटे-बड़े बैंक में, बटुए से लेकर एटीएम तक में हर जगह मौजूद रुपया हर दौर में लोगों की सबसे बड़ी जरूरत रहा है। इसलिए तो दुनिया कहती भी है कि 'बाप बड़ा न भइया, सबसे बड़ा रुपैया'। हर चीज से बढ़कर है रुपैया, जिसके सिक्कों की खनक हो या करारे नोटों की खुश्बू हर कोई इसका दीवाना है। आज आपको रुपये के जन्म से लेकर अब तक की पूरी कहानी बताने के साथ ही भारतीय मुद्रा के इतिहास और रुपए से पहले कैसे होता था लेन-देन इसकी भी दास्तां सुनाऊंगा। वैदिक साहित्य से पता चलता है कि 'रुपया' शब्द संस्कृत शब्द 'रूप्यकम' से लिया गया है। शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'चांदी का सिक्का'। कई बार रंग, नाम बदलने, रद्द करने के बाद अब रिजर्व बैंक पैसे छापने की जिम्मेदारी संभाल रहा है।
जानवरों से लेन-देन
वर्तमान दौर में हम किसी के पास कोई सामान खरीदने के लिए जाते हैं तो बदले में उसे पैसे देते हैं। उसी प्रकार जिसे पैसे देते हैं वो अपनी जरूरत के हिसाब से अन्य कोई समान खरीदने के लिए उसी पैसे का उपयोग करता है। अगर हम कहीं काम करते हैं तो हमें उसके बदले में बतौर परश्रमिक हमें पैसे में भुगतान किया जाता है। कुल मिलाकर कहा जाए तो बिना पैसे की दुनिया की वर्तमान दौर में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब दुनिया में पैसे-रुपये नाम की कोई चीज ही नहीं होती थी। पुराने दौर में लोग अपने-अपने तरीके से लेन-देन करते थे। अगर किसी को कोई भी समाना दूसरे आदमी से लेना होता था तो उसके बदले में उसे कोई चीज देनी होती थी। पुराने समय में लेनदेन करने के लिए जानवरों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता था क्योंकि उस समय सिर्फ जानवर ही एक व्यापार का तरीका होते थे। क्योंकि उस समय में जानवर सबसे ज्यादा होते थे और ना ही तो आज के समय के जैसी गाड़ियां होती थी और ना ही अन्य दूसरे साधन होते थे और उस समय में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए सिर्फ जानवरों का ही इस्तेमाल किया जाता था जैसे घोड़े ऊंट हाथी इन चीजों का इस्तेमाल होता था। इन चीजों से व्यापार किया जाता था। मान लीजिए किसी को घोड़े की जरूरत है तो वो उस आदमी को घोड़े वाले आदमी को अपनी बकरी या कोई दूसरा जानवर देना पड़ता।
महाजनपद काल के दौरान सिक्कों के प्रचलन में इजाफा
भारतीय सभ्यता के शुरुआती दिनों में सिक्के नहीं बल्कि कार्ड विनिमय का माध्यम थे। 1900 से 1800 ईसा पूर्व तक सिंधु सभ्यता में चांदी के खुदे हुए सिक्के प्रचलन में थे। माना जाता है कि सुमेरियन सभ्यता और सिंधु सभ्यता में ऐसे सिक्कों के माध्यम से व्यापार किया जाता था। ये ज्ञात है कि 'निष्का' और 'मन' नामक सोने के सिक्के वैदिक काल में भी प्रचलन में थे। लिडियन स्टेटर (फारसी सिक्का) और चीनी सिक्का के रूप में प्राचीन भारत में सिक्का भी प्रचलन में था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सोलहवीं महाजनपद काल के दौरान व्यापार के विस्तार के साथ ही सिक्कों के प्रचलन में इजाफा हुआ। गांधार, पांचाल, कुरु, कुंतल, शाक्य, सुरसेन और सौराष्ट्र आदि के अलग-अलग सिक्के चलन में थे। हालांकि, तब इन सिक्कों को 'टका' नहीं कहा जाता था। इस प्राचीन सिक्के को 'पुराण' या 'कर्शपन' के नाम से जाना जाता था। ये सिक्के चांदी के बने होते थे। हालांकि वजन बहुत ज्यादा नहीं था, लेकिन हर बस्ती के सिक्कों का आकार अलग-अलग था। आकार और प्रतीक भी महाजनपद से महाजनपद तक भिन्न थे। सौराष्ट्र के सिक्कों में कूबड़ वाला बैल था, जबकि दक्षिण पांचाल के सिक्कों में स्वस्तिक का प्रतीक था। लेकिन मगध के मामले में यह ज्ञात है कि एक समय में एक विशिष्ट प्रतीक नहीं, बल्कि एक प्रकार का प्रतीक प्रयोग किया जाता था।
दिल्ली सल्तनत के दौरान इस्लामी डिजाइनों को उकेरने का आदेश
मौर्य वंश के पहले सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल के दौरान सोने, चांदी, तांबे और शीशे से बने उत्कीर्ण सिक्कों की शुरुआत की थी। बाद में इंडो-यूनानी कुषाण राजाओं के हाथों में नए सिक्के बाजार में आए। ग्रीक शैली के अनुसार, इन सिक्कों में विभिन्न प्रकार के चित्र उकेरे गए थे। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के अनुसार चांदी के सिक्कों को 'रूप्यरूप', सोने के सिक्कों को 'सुवर्णरूप', तांबे के सिक्कों को 'ताम्ररूप' और सीसे के सिक्कों को 'शिसरूप' के रूप में जाना जाता था। दिल्ली की तुर्की सल्तनत के दौरान, सिक्कों का आकार और मात्रा फिर से बदल गई। बारहवीं शताब्दी ईस्वी तक सुल्तानों ने सिक्कों पर इस्लामी डिजाइनों को उकेरने का आदेश दिया। उस समय बाजार में सोने, चांदी और तांबे से बने विभिन्न सिक्के चल रहे थे। सुल्तान इल्तुतमिस के शासन काल में दो प्रकार के सिक्के- 'टंका' (चांदी का सिक्का) और 'जिताल' (तांबे का सिक्का) का प्रयोग होने लगा।
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