विलक्षण प्रतिभा के धनी थे नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी
25 दिसंबर अटलबिहारी वाजपेयी जी का जन्म-दिवस था और 23 दिसंबर को नरसिम्हा राव जी और स्वामी श्रद्धानंदजी की पुण्यतिथि थी। इन तीनों महानुभावों से मेरी व्यक्तिगत और आध्यात्मिक घनिष्टता रही है। स्वामी श्रद्धानंद आर्यसमाज और कांग्रेस के बड़े नेता थे। उन्होंने ही देश में गुरुकुल व्यवस्था को पुनर्जीवित किया, जिसका गुणगान नरेंद्र मोदी ने कल ही किया है। उनकी गणना स्वातंत्र्य संग्राम के सर्वोच्च सैनानियों में होती है। उन्होंने भारत की शिक्षा-व्यवस्था और हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में अपूर्व प्रतिमान कायम किए हैं। 23 दिसंबर 1926 को एक मूर्ख मजहबी ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी थी। वे विद्वान, तपस्वी तथा त्यागी संन्यासी थे।
वैसे ही आर्यसमाजी परिवार में श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने जन्म लिया था। अटलजी और नरसिंहरावजी मेरे अभिन्न मित्र रहे। दोनों से मेरा लगभग 50 साल का संबंध रहा। दोनों के जन्मदिन पर (25 दिसंबर व 28 जून) हमारा भोजन साथ-साथ होता था। दोनों प्रधानमंत्री भी बने लेकिन दोनों के स्वभाव में मैंने कोई खास परिवर्तन नहीं देखा। वैसे देश में अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए, नेहरुजी और शास्त्रीजी के अलावा सभी से मेरा सीधा संबंध रहा है।
मैं ऐसा मानता हूं कि अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों में चार प्रधानमंत्री विशेष हुए। जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, नरसिंहराव और अटलजी ! अन्य प्रधानमंत्री भी अपने कुछ विशेष योगदानों के लिए जरूर जाने जाएंगे लेकिन या तो उन्हें अवधि बहुत कम मिली या फिर वे मजबूरी में अपने पद पर बने रहे। ऐसा नहीं है कि उक्त चारों प्रधानमंत्रियों से गल्तियां नहीं हुईं। उनसे भयंकर भूलें भी हुई हैं लेकिन उनका योगदान एतिहासिक रहा।
वर्तमान प्रधानमंत्री के मूल्यांकन के लिए अभी प्रतीक्षा करनी होगी लेकिन अटलजी और राव साहब के व्यक्तित्वों में कुछ ऐसे गुण थे, जिन्हें भारत-जैसे लोकतांत्रिक देशों के सभी भावी प्रधानमंत्रियों को कुछ न कुछ सीखने को मिल सकता है। उनका पहला गुण तो यह था कि उनके पद ने उन्हें अहंकारग्रस्त नहीं होने दिया। वे आम लोगों और अपने विरोधियों से भी सीधा संवाद रखते थे। दूसरा, वे अन्य नेताओं की तरह नौकरशाहों की नौकरी नहीं करते थे। उनसे वे सलाह जरूर लेते थे लेकिन वे निर्णय अपने विवेक से करते थे।
तीसरा, वे पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र पर बहुत जोर देते थे। अपने मंत्रियों, पार्टी अधिकारियों और कार्यकर्ताओं से खुला संवाद करने में वे संकोच नहीं करते थे। चौथा, ये दोनों ही नहीं, कुछ अन्य प्रधानमंत्री भी आम लोगों की व्यथा-कथा सुनने के लिए खुला दरबार लगाते थे।
पांचवाँ, ये प्रधानमंत्री पत्रकारों से डरते नहीं थे। पत्रकार-परिषदों में पूछे गए बेढंगे सवालों पर भी अपनी संयत प्रतिक्रिया देते थे। छठा, इन दोनों प्रधानमंत्रियों ने ‘बराबरीवालों में प्रथम’ रहने की पुरानी संसदीय परंपरा को भली प्रकार से निभाया। वे अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह ‘अपनेवाली’ नहीं चलाते रहे। दोनों प्रधानमंत्रियों का आज पुण्य-स्मरण!
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
Narasimha rao and atal bihari vajpayee were rich in prodigious talent