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संसद सत्र से जनता को हैं बड़ी उम्मीदें, पर सदस्यों का हंगामा कहीं पानी ना फेर दे

संसद सत्र से जनता को हैं बड़ी उम्मीदें, पर सदस्यों का हंगामा कहीं पानी ना फेर दे

संसद सत्र से जनता को हैं बड़ी उम्मीदें, पर सदस्यों का हंगामा कहीं पानी ना फेर दे

लोकतंत्र में सफलता की कसौटी है- संसद की कार्रवाही का निर्विघ्न संचालित होना। संसद के शीतकालीन सत्र शुरू होने से पूर्व ही हंगामा होने के आसार दिखाई दे रहे हैं। यह कोई नई-अनोखी बात नहीं है। क्योंकि समूचे विपक्ष ने इस सत्र को हंगामेदार करने की ठान ली है। जहां तक महंगाई, बेरोजगारी, चीन सीमा, सरकारी प्रतिष्ठानों एवं एजेन्सियों के कथित दुरुपयोग, कॉलेजियम जैसे मुद्दों को उठाने एवं इन विषयों पर सरकार से जवाब मांगने का प्रश्न है, यह स्वस्थ एवं जागरूक लोकतंत्र की निशानी है। लेकिन इन्हीं मुद्दों को आधार बनाकर जहां संसद की कार्रवाई को बाधित करने की स्थितियां हैं, यह अलोकतांत्रिक है, अमर्यादित हैं। शीतकालीन सत्र लोकतांत्रिक समझौते के साथ समझ को विकसित करने का उदाहरण बने, यह अपेक्षित है। समझौते में शर्तें व दबाव होते हैं जबकि समझ नैसर्गिक होती है। इन्हीं दो स्थितियों में जीवन का संचालन होता है और इन्हीं से राष्ट्र, समाज और लोकतंत्र का संचालन भी होता है।

लोकसभा के उपनेता एवं रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में हुई सर्वदलीय बैठक में विपक्ष ने यह संकेत दिया कि संसद के मौजूदा सत्र में महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण जैसे विषय उसकी प्राथमिकता में होंगे। यह तो सर्वविदित है कि विपक्ष गत कुछ समय की कतिपय राजनीतिक घटनाओं से उत्साहित एवं आक्रामक हुआ है। इन्हीं बुलन्द हुए हौसलों में विपक्ष की तरफ से संसद में जिन मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की जहां कोशिश होगी, वहां सत्तापक्ष को इन विषयों पर विपक्ष की ओर से उठाए गए प्रश्नों का उत्तर देने के लिए तत्पर रहना चाहिए। विपक्ष को यह आभास कराना ही चाहिए कि उसका उद्देश्य अपने सवालों के जवाब पाना है, न कि हंगामा कर सदन की कार्यवाही ठप करना। सत्तापक्ष को इसके लिए भी तत्पर रहना चाहिए कि संसद के इस सत्र में प्रस्तावित विधेयक पारित हों। ये विधेयक व्यापक विचार-विमर्श के साथ पारित होने चाहिए। जब कभी आवश्यक विधेयक संसद में अटके रह जाते हैं तो इससे कुल मिलाकर देश को नुकसान होता है। संसद में राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए, ताकि देश को कोई दिशा मिल सके, विकास के कार्यों को गति मिल सके, लेकिन इसके स्थान पर आरोप-प्रत्यारोप अधिक होना दुर्भाग्यपूर्ण है। कई बार तो इसे लेकर गतिरोध कायम हो जाता है जो संसद के अमूल्य समय की बर्बादी है। मौजूदा माहौल में सरकार के लिए चर्चा से इनकार करना मुश्किल होगा, लेकिन विपक्ष को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि अधिक आक्रामक रुख अख्तियार कर वह संसद की कार्यवाही को बाधित करने तक सीमित न रह जाए। ऐसा होने से लोकतंत्र की मूल भावना पर आघात होता है। विपक्ष सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने और सत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए पहल करें एवं एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करें।

विपक्ष के तेवरों को देखते हुए यही प्रतीत हो रहा है कि वह दोनों सदनों में सरकार की घेराबंदी के किसी मौके को नहीं छोड़ना चाहेगा, ऐसी स्थितियां बनना देशहित में नहीं है। विरोध या आक्रामकता यदि देशहित के लिये, ज्वलंत मुद्दों पर एवं समस्याओं के समाधान के लिये हो तभी लाभदायी है। लोकमान्य तिलक ने कहा भी है कि -‘मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट कार्य के लिये सारे पक्षों का एक हो जाना जिंदा राष्ट्र का लक्षण है।’ राजनीति के क्षेत्र में आज सर्वाधिक चिन्तनीय विषय है- विपक्षी दलों का सत्तापक्ष के प्रति विरोध या आक्षेप-प्रत्याक्षेप करना। सत्ता पक्ष को कमजोर करने के लिये संसदीय कार्रवाई को बाधित करना और तिल का ताड़ बनाने जैसी स्थितियों से देश का वातावरण दूषित, विषाक्त और भ्रान्त बनता है।

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देश की संसद को निरपेक्ष भाव एवं सकारात्मक ढंग से राष्ट्रीय परिस्थितियों का जायजा लेते हुए लोगों को राहत प्रदान करने के प्रावधानों पर चिन्तन-मंथन के लिये संचालित करना होगा। संसद केवल विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच वाद-विवाद का स्थल नहीं होती है बल्कि जन हित में फैसले करने का सबसे बड़ा मंच होती है। इसके माध्यम से ही सत्तारुढ़ सरकार की जवाबदेही और जिम्मेदारी तय होती है और जरूरत पड़ने पर जवाबतलबी भी होती है परन्तु यह भी सच है कि सत्ता और विपक्ष की संकीर्णता एवं राजनीतिक स्वार्थ देश के इस सर्वोपरि लोकतांत्रिक मंच को लाचार भी बनाते हैं जो 130 करोड़ जनता की लाचारी बन जाते हैं। कहना कठिन है कि संसद के शीतकालीन सत्र में क्या होगा, लेकिन अच्छा यह होगा कि राजनीतिक दल उन देशों की संसद में होने वाली कार्यवाही को अपना आदर्श बनाएं, जहां प्रत्येक विषय पर धीर-गंभीर एवं सार्थक बहस होती है। आखिर अपने देश में अमेरिका और ब्रिटेन की संसद की तरह से बहस क्यों नहीं हो सकती? यदि संसद में होने वाली बहस का स्तर ऊंचा उठ सके तो देश सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ-साथ श्रेष्ठ लोकतंत्र की दिशा में भी तेजी से आगे बढ़ सकता है। लेकिन संसद में होने वाली बहस के गिरते स्तर के चलते उसकी गरिमा में गिरावट आ रही है और आम जनता संसदीय कार्यवाही को लेकर उत्साहित नहीं होती।

29 दिसम्बर तक चलने वाले सत्र के दौरान सरकार की तरफ से 16 विधेयक पेश करने की योजना बनाई गई है। यदि विपक्ष हंगामा करने को अपना मकसद नहीं बनाता और सत्तापक्ष उसकी ओर से उठाए गए मुद्दों को सुनने के लिए तत्पर रहता है तो संसद का यह शीतकालीन सत्र एक कामकाजी सत्र का उदाहरण बन सकता है। संसद में केवल ज्वलंत मसलों पर उपयोगी चर्चा ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि विधायी कामकाज भी सुचारू रूप से होना चाहिए। यदि संसद को अपनी उपयोगिता और महत्ता कायम रखनी है तो यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि वहां पर राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर सार्थक चर्चा हो। यह चर्चा ऐसी होनी चाहिए, जिससे देश की जनता को कुछ दिशा एवं दृष्टि के साथ राहत मिले, नयी योजनाओं एवं विकास को गति मिले। संसद में राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों पर सार्थक चर्चा के लिए दोनों ही पक्षों को योगदान देना होगा। संसद सत्र के पहले सर्वदलीय बैठकों में इसके लिए हामी तो खूब भरी जाती है, लेकिन अक्सर नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही अधिक रहता है।

संसद राज्यों की सरंक्षक एवं मार्गदर्शक भी है और जब हम भारत के विभिन्न राज्यों की तरफ नजर दौड़ाते हैं तो सर्वत्र बेचैनी, समस्याओं एवं अफरातफरी का आलम देखने को मिलता है। हर बार की तरह इस बार संसद के भीतर बिखरे विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशें हो रही हैं। यह एकजुटता अच्छी बात है, लेकिन इसकी सकारात्मकता भी जरूरी है। एक बात और, विपक्ष आक्रामक रहकर भले ही अपनी राजनीतिक बढ़त बनाने की कोशिश करे, लेकिन इसके बावजूद वह विधायी कार्य में कोई अड़ंगा न डाले। किसी भी तौर पर यह भविष्य की नजीर नहीं बननी चाहिए क्योंकि एक व्यक्ति की हिमाकत पूरे लोकतन्त्र को प्रदूषित नहीं कर सकती। हमारी संसद तभी लोकतन्त्र में सर्वोच्च कहलाती है जब यह अपने ही बनाये गये नियमों का शुचिता, अनुशासन एवं संयम के साथ पालन करती है। अगर हम संसद में बैठे राजनीतिक दलों की हालत देखें तो वह भी बहुत निराशा पैदा करने वाली लगती है। कहने को कांग्रेस विपक्षी पार्टी है मगर जिन राज्यों में वह सत्ता में है उनमें आपस में ही इसमें सिर फुटव्वल का वातावरण बना हुआ है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो या़त्रा के राजस्थान में होने के बावजूद अशोक गहलोत एवं सचिन पायलेट के बीच एक दूसरे को पछाड़ने का संघर्ष लगातार चल रहा है। जो पार्टी को नहीं जोड़ पा रहे हैं, वे भारत को क्या जोड़ेंगे? अन्य विपक्षी दलों में ही ऐसी स्थितियां देखने को मिलती हैं। लेकिन इन विपक्षी दलों के कारण कई बार संसद में हंगामा ही अधिक होता है और काम कम। यह सिलसिला तब तक कायम रहेगा, जब तक सत्तापक्ष और विपक्ष यह नहीं समझते कि संसद सार्थक संवाद का मंच है, न कि हल्ला एवं हंगामा करने का स्थान।

-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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