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Gyan Ganga: परमात्मा को तो हम मानते हैं किन्तु परमात्मा की बात नहीं मानते हैं

Gyan Ganga: परमात्मा को तो हम मानते हैं किन्तु परमात्मा की बात नहीं मानते हैं

Gyan Ganga: परमात्मा को तो हम मानते हैं किन्तु परमात्मा की बात नहीं मानते हैं

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 

प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। 

मित्रों ! पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि भगवान जो भी करते हैं, अच्छा ही करते हैं। भगवान के किसी भी कार्य में संदेह नहीं करना चाहिए। 

व्यक्ति को चाहिए कि हर क्षण भगवान की कृपा का अनुभव करे और प्रारब्ध के अनुसार जो सुख-दुख मिलता है उसे प्रभु का प्रसाद समझकर निर्विकार मन से भोग ले। श्री मदभागवत का पावन संदेश-- इंसान को अपना प्रारब्ध प्रसन्नता से भोगना चाहिए। 

आइए ! कथा के अगले प्रसंग में चलें --------

बुद्धिमान किसान वह है, जो बीज बोते समय अच्छी तरह विचार कर ले कि कौन-सा बीज बोना हितकर होगा। पर जब बीज बो चुका और फसल काटने का समय आया तो यह सोचने से क्या फायदा कि वह बीज बोया होता तो अच्छा होता। ज्ञानी जनों का कहना है— “अब जो बोया है वह तो चुप-चाप काट ले, आगे जब बोना तो सोच समझकर बोना।'' लेकिन जीव की प्रवृति क्या है? प्रत्येक जीव प्राय: पाप का बीज बोता रहता है और फल पुण्य का काटना चाहता है। यह कैसे संभव हो सकता है? पाप का बीज बोया है तो पाप और दुख की फसल काटनी ही पड़ेगी, पुण्य का बीज बोया है तो सुख की फसल मिलेगी ही। कोई रोक नहीं सकता। इसलिए प्रह्लाद जी ने कहा- यथा दुखमयत्नत; तथा सुखमयत्नत; सुख भाग्य के अधीन है। यदि तुम कुछ नहीं भी करो और प्रारब्ध अच्छा है तो तुम्हारे लिए जंगल में भी मंगल है। दुख कोई नहीं चाहता फिर भी दुखी होना पड़ता है, उसी प्रकार सुख नहीं भी चाहो और भाग्य में  है तो न चाहने पर भी अवश्य मिलेगा। जैसे बिना कोशिश के दुख मिला वैसे ही बिना कोशिश के सुख भी मिलेगा। प्रसन्नता पूर्वक प्रारब्ध को स्वीकार करना चाहिए। बुद्धिमान व्यक्ति प्रारब्ध को हँसकर भोगता है और अज्ञानी रो-रोकर भोगता है, भोगते दोनों ही हैं। यदि आप अपने कर्मों को हँसकर भोगेंगे तो उतना कष्टप्रद नहीं होगा और रोते हुए भोगोगे तो हर क्षण दुखी रहोगे। भगवान की कृपा को हर परिस्थिति में महसूस करना चाहिए। आखिर जीवन में किया क्या जाए? 

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हृद वाक् वपुभि; तन, मन और वचन से हरि चरणो की वंदना करने की आदत डालनी चाहिए। ऐसा नही कि वाणी से कुछ कहा, मन कुछ दूसरा हिसाब लगा रहा है और तन किसी दूसरे काम में लगा है। मन, वचन, कर्म तीनों से एक होकर जिसने प्रभु को भजना सीख लिया और इन तीनों को अपनी जबान में उतार लिया उसका भगवत धाम में रिज़र्वेशन हो गया। पुत्र को पिता की संपत्ति पाने के लिए पिता की आज्ञा में  रहना पड़ता है। पिता का आज्ञाकारी पुत्र हो गया तो पिता की सारी संपत्ति हमारे नाम हो जाएगी। हम उस परम पिता परमेश्वर की संतान हैं। जब परमात्मा की संतान हैं तो परमात्मा की मोक्ष रूपी संपत्ति में हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। पर हम लोग क्या करते हैं। परमात्मा को तो मानते हैं किन्तु परमात्मा की नहीं मानते हैं। पिताजी को सुबह शाम खूब प्रणाम करते हैं किन्तु पिताजी की एक बात भी नहीं सुनते हैं। ये कोई मानना हुआ। परमात्मा की आज्ञानुसार शास्त्रों में जो आदेश दिए हैं— 

सत्यम वद, धर्मं चर, मातृदेवों भव, पितृदेवो भव, अतिथि देवो भव, आचार्य देवो भव। ये सब परमात्मा की आज्ञाएं हैं। यदि जीव ऐसा आचरण करता रहे परमात्मा का सच्चा पुत्र बन जाए तो ईश्वर की मोक्ष रूपी संपत्ति स्वत; उसकी हो जाए। इस प्रकार ब्रह्मा जी ने प्रभु की स्तुति की और एक बात बड़ी विनम्रता से कही— सरकार ! माँ के गर्भ में जब बालक होता है, तो उसके हिलने-डुलने और पाद प्रहार से माँ को बड़ा कष्ट होता है, तो क्या माँ उसका बुरा मानती है, क्या उससे बदला लेती है? कदापि नहीं। उसी प्रकार यह अनंत कोटि ब्रह्मांड सब आपके ही उदर में स्थित है। हे प्रभु! क्या मैं आपके पेट का बच्चा नहीं हूँ। मैंने कोई अपराध कर ही दिया तो अपना गर्भस्थ शिशु मानकर मुझे क्षमा दान कर दें।

उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयो किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे 
किमस्ति नास्ति व्यपदेश भूषितं तवास्ति कुक्षे कियदप्यनन्त:।।

अब देखिए इतनी नम्रता पूर्वक बात करने पर भी भगवान बात नहीं कर रहे हैं। अब ब्रह्माजी को लगा कि अपनी प्रशंसा से प्रसन्न नहीं हो रहे हैं तो शायद व्रजवासियों की प्रशंसा से प्रसन्न हो जाएँ क्योंकि भगवान व्रजवासियों से बहुत प्यार करते हैं। ब्रहमाजी व्रजवासियों का गुणगान करने लगे। 

अहो भाग्यम अहो भाग्यम नंदगोप व्रजौकसा 
यन्मित्रम् परमानंदम् पूर्ण ब्रह्म सनातनम्॥ 

ब्रह्माजी अपने चारों मुखों से व्रजवासियों के भाग्य की सराहना करने लगे। कितने भाग्यशाली हैं ये व्रजवासी। इनके सौभाग्य की तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती। बड़े-बड़े सिद्ध तपस्वी ऋषि, मुनि हमारे जैसे देवता इनकी एक कृपा पाने के लिए तरसते रहते हैं उसी पर ब्रह्म परमेश्वर को ये अहीर की छोहरियाँ (गोपियाँ) थोड़े से छाछ का प्रभोलन देकर नचाती हैं।

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सूरदास जी कहते हैं -----
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सो वेद बतावे 
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छांछ पे नाच नचावे ॥ 
क़ृष्णावतार में भगवान ने ऐसे-ऐसे खेल खेले हैं, कि मनुष्य की तो बात ही क्या ब्रह्माजी भी मोहित हो गए हैं। 

शेष अगले प्रसंग में ..........  
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

- आरएन तिवारी

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