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एक देश दो विधान: वक्फ एक्ट की तरह मठ और मंदिर सरकारी नियंत्रण से मुक्त क्यों नही? क्या है हिन्दू धर्म दान एक्ट 1951 जिसे खत्म करने की उठी मांग

एक देश दो विधान: वक्फ एक्ट की तरह मठ और मंदिर सरकारी नियंत्रण से मुक्त क्यों नही? क्या है हिन्दू धर्म दान एक्ट 1951 जिसे खत्म करने की उठी मांग

एक देश दो विधान: वक्फ एक्ट की तरह मठ और मंदिर सरकारी नियंत्रण से मुक्त क्यों नही? क्या है हिन्दू धर्म दान एक्ट 1951 जिसे खत्म करने की उठी मांग

तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में एक बेहद अजीबोगरीब मामला सामने आया जब मुस्लिम वक्फ बोर्ड ने खुद को पूरे गांव का 'मालिक' बता दिया। वक्फ बोर्ड के पूरे गांव के मालिक होने का चौंकाने वाला मामला तब सामने आया जब एक स्थानीय व्यक्ति ने अपनी बेटी की शादी के लिए अपनी जमीन बेचने की कोशिश की। रजिस्ट्रार ने उन्हें बताया कि यह वक्फ बोर्ड का है और इसे बेचने के लिए उन्हें इससे अनुमति लेनी होगी। यानी इस देश में वक्फ एक्ट के तहत वक्फ बोर्ड के पास इतनी असीमित शक्तियां हैं कि वो तमिलनाडु के तिरुचेंथुरई में स्थित 1500 साल पुराने मंदिर समेत पूरे गांव पर ही दावा ठोक सकता है। वक्फ बोर्ड इन दिनों खूब चर्चा में है और इससे जुड़ा एक एमआरआई का विश्लेषण हमने पहले ही किया हुआ है। जिसका लिंक आपको डिस्क्रिप्शन बॉक्स में मिल जाएगा। देश में हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी है। विश्व हिंदू परिषद लंबे वक्त से इस संबंध में केंद्रीय कानून बनाने की मांग करता रहा है। बता दें कि भारत के अधिकांश मंदिर सरकारों के नियंत्रण में हैं। वक्फ बोर्ड एक अलग निकाय है। जिसकी संपत्तियों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। यही वजह है कि हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण को मजबूत करने वाले हिंदू धर्म दान एक्ट 1951 को खत्म करने की मांग तेज होने लगी है। 

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सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू, बौद्ध, जैन और बौद्ध संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण के खिलाफ दायर एक याचिका पर केंद्र और सभी राज्य सरकारों से जवाब मांगा है। शीर्ष अदालत ने सरकारों से कहा कि वे सभी धार्मिक स्थलों के लिए एक समान कानून, यानी समान धार्मिक संहिता की मांग पर चार सप्ताह के भीतर हलफनामा दाखिल करें। न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की दो सदस्यीय पीठ ने मामले को छह सप्ताह बाद अगली सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया। इसके साथ ही दूसरी पीठ के समक्ष लंबित याचिकाओं को स्वामी दयानंद सरस्वती की उसी पीठ के समक्ष लंबित याचिका के साथ जोड़ दिया गया। आपको बता दें कि इसी मुद्दे पर अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय और अन्य की याचिका मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष लंबित है। बता दें कि दायर याचिका में मांग की गई है कि जैसे मुस्लिमों और ईसाईयों द्वारा अपने धार्मिक स्थलों, प्रार्थना स्थलों का प्रबंधन बिना सरकारी दखल के किया जाता वैसे ही हिंदू, जैन, बौद्ध और सिखों को भी अपने धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन और प्रशासन का अधिकार होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा है कि धर्मनिरपेक्ष देश में जब संविधान किसी भी तरह के धार्मिक भेदभाव की मनाही करता है तब पूजा स्थलों के प्रबंधन को लेकर भेदभाव क्यों होना चाहिए? मस्जिद, दरगाह और चर्च पर जब सरकारी नियंत्रण नहीं है तो मठों-मंदिरों, गुरुद्वारों पर सरकार का नियंत्रण क्यों?
सातवीं सदी से 16वीं सदी तक मंदिरों की संपदा को लूटा गया
भारत के परम वैभव से आकर्षित होकर सातवीं सदी की शुरुआत से सौलहवीं सदी तक निरंतर हजारों हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिरों का न केवल विध्वंस किया गया बल्कि उसकी संपदा को भी लूट लिया गया। खासतौर पर ऐसे पूजास्थलों पर आक्रमण किया गया जो अपने विशालतम आकार से कहीं ज्यादा देश की गौरवशाली अस्मिता का प्रतीक थे। अपनेप्रत्येक आक्रमण में गजनवी ने सनातन धर्मियों केकितने ही छोटे-बड़े मंदिरों को अपना निशाना बनाया। मंदिरों में जमा धन को लूटा और मंदिरों को तोड़ दिया। वर्ष 725 में सिंध के अरब शासक अल-जुनैद ने महमूद गज़नी से पहले ही इस मंदिर में तबाही मचाई थी। जगन्नाथ मंदिर को 20 बार विदेशी हमलावरों द्वारा लूटे जाने की कहानी हो या सोमनाथ के संघर्ष के इतिहास से हर कोई रूबरू है। विदेशी आततातियों के इतने आक्रमण और लूटे जाने के बाद भी हिन्दुस्तान के मंदिर धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण आज भी बना हुए हैं। 

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कांग्रेस नेता ने की थी सोने को अधिग्रहीत करने की बात 
कोरोना महामारी के दौरान महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा था कि देश में धार्मिक ट्रस्टों के पास एक ट्रिलियन डॉलर का सोना पड़ा हुआ है। सरकार को कोरोना संकट से निपटने के लिए इस सोने का तुरंत इस्तेमाल करना चाहिए। इस आपातकालीन स्थिति में सोने को कम ब्याज दर पर सोने के बॉन्ड के माध्यम से उधार लिया जा सकता है। उनके सोने वाले बयान पर सियासत का चढ़ावा चढ़ गया। साधु संत आगबबूला हो गए। बयान विवादित था तो आलोचना भी लाजमी थी। बाद में जब मामला बढ़ा तो ये कहकर पृथ्वीराज ने अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की कि उनकी बात को गलत तरीके से पेश किया गया है। 
राज्य की बेड़ियों के नीचे हिंदू मंदिर
हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडाउमेंट एक्ट, 1951 यानी हिंदू धर्म दान एक्ट, 1951 जिस कानून के अनुसार भारत में मौजूद बड़े बड़े मंदिरों का प्रबन्ध सरकार अपने हाथो में ले लेती है इन मन्दिरों के प्रबंधन के लिए सरकार के द्वारा एक आईएएस अधिकारी को नियुक्त किया जाता है। और फिर यही अधिकारी उस मंदिर को अपने अपने ढंग से चलाता है। इस कानून के कारण बहुत सी राज्य सरकारो ने हज़ारों मन्दिरों को अपने अधिकार में ले किया है। हिंदू मंदिरों को लंबे समय से कानूनों के द्वारा शासित किया गया है। कर्नाटक के 1,80,000 मंदिरों में से लगभग 34,500 राज्य द्वारा शासित हैं। हिंदू धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम (एचआरसीई) की धारा 23 किसी भी मंदिर को अपने दायरे में लाने की शक्ति सरकार को देती है। जबकि इसकी धारा 25 मंदिर को चलाने के लिए प्रबंधन समिति को कई शक्ति देती है। एक रिपोर्ट के अनुसार आंध्र प्रदेश में इस कानून के अंतर्गत 43000 मन्दिरोँ का अधिग्रहण कर लिया गया है और इनसे प्राप्त राजस्व इनकम का मात्र 18% ही मन्दिरों के रख रखाव के लिए दिया जाता है बाकी के 82% कहाँ ख़र्च हुए उसका कोई हिसाब नहीँ है । अमेरिकन लेखक Stephen Knapp अपनी किताब Crimes Against India and the need to Protect Ancient Vedic Tradition में लिखते हैं कि विश्व प्रसिद्ध तिरुमला तिरुपति मन्दिर प्रतिवर्ष 3100 करोड़ रुपये इकट्ठे करता है जिसका 85% सरकारी खजाने में जाता है। और उन कामों पर खर्च होता है जिनका हिंदु धर्म से कोई लेना देना नहीं आप और हम किसके लिए यह राशी मंदिरों में दान करते है सोचना होगा। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी, जो खुद ईसाई हैं। उन्होंने अपने चाचा को तिरुपति बोर्ड का चेयरमैन नियुक्त किया है। 

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 मंदिरों में सरकारी दखल के बीज उपनिवेश काल में ही पड़ गए
आपने चर्चों की तरफ से कई मिशनरी स्कूल के संचालन को देखा होगा। लेकिन क्या आपने किसी मंदिर की तरफ से स्कूल चलाए जाते देखा है? इसके पीछे की वजह है कि मंदिरों का वित्तीय तंत्र मंदिरों के पास है ही नहीं। भारत में चर्च और मस्जिद स्वतंत्र हैं। वे सरकार को कोई धन नहीं देते हैं। लेकिन सरकार से उन्हें पैसा मिलता है। कई सरकारें मौलवियों को सैलरी देती है। लेकिन ये सरकारें 1 लाख करोड़ हिंदू मंदिरों से लेती है। उन्हें कुछ भी नहीं देती है। वैसे हिंदू मंदिरों में सरकारी दखल की बात कोई नई नहीं है। इसके बीज उपनिवेश काल में ही पड़ गए थे। इंग्लैंड चर्च और राज्य के बीच कोई विभेदक दीवार नहीं है। राजा ही चर्चा का भी प्रमुख होता है। यह अधिनियम वहां राजा हेनरी अष्टम के वक्त यानी 1534 से ही लागू हो गया था। लेकिन भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कब्जे वाले इलाकों में मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों की जमीनों को कंपनी की संपत्ति घोषित कर दी थी। जिसका विरोध उस वक्त क्रिश्चियन मिशनरियों ने किया था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन सीधे अपने अधीन ले लिया। अंग्रेज सरकार ने 1863 में कानून बनाया, जिसके तहत सरकार का धार्मिक स्थलों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप रोक दिया गया। इसका सीधा अर्थ था कि राजसत्ता और धर्मसत्ता अलग-अलग रहेंगे। आजादी का आंदोलन तेज होने के साथ 1919 में भारत के राजनीतिक और प्रशासनिक सुधार लागू किए गए। राज्यों में विधायिका बनी। लोकतंत्र का आगाज हुआ। लेकिन मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की पहली कानूनी पहल 1826 में मद्रास में हुई। इसके तहत प्रांतीय सरकार ने बोर्ड बनाकर राज्य के मंदिरों का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। हालांकि कहा जाता है कि बाबा साहब आंबेडकर धार्मिक मामलों में सरकारी दखल के खिलाफ थे। 
उत्तराखंड देवस्थानम बोर्ड को करना पड़ा भंग
जहां तक मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की बात है तो दक्षिण के लगभग सभी राज्यों में हिंदू मंदिर सरकार द्वारा गठित देनस्थानम बोर्ड के अधीन संचालित होते हैं। शेष भारत में सभी  बड़े मंदिर बोर्ड और ट्रस्ट द्वारा संचालित हैं। सरकार ने इन सभी मंदिरों का नियंत्रण इस भावना से अपने हाथों में लिया कि इससे मंदिर परिसरों का समुचित विकास होगा। उत्तराखंड विधानसभा द्वारा चारो धामों और अन्य महत्वपूर्ण मंदिरों के संचालन के लिए एक विधेयक विधानसभा में पास किया गया था। इसका पूरा नाम चार धाम देवस्थानम प्रबंधन बोर्ड है। चार धाम यात्रा की व्यवस्था को दुरुस्त करने के मकसद से इसके लाए जाने की बात राज्य सरकार की ओर से कही गई। 24 फरवरी 2020 को देवस्थानम बोर्ड के सीईओ की नियुक्ति कर राज्य सरकार ने सभी प्रमुख मंदिरों का पूरा कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया। बोर्ड के अध्यक्ष मुख्यमंत्री और धर्मस्व व संस्कृति मंत्री इसके उपाध्यक्ष बनाए गए। नवंबर 2019 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के द्वारा लाए उस कानून की जिसे 80 साल पुरानी व्यवस्था पर एक प्रहार के रूप में बताया गया था। उत्तराखंड देवस्थानम बोर्ड के गठन के बाद से ही साधु संतों में भारी नाराजगी देखने को मिली। बाद में भारी विरोध के बाद सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा और बोर्ड को भंग कर दिया गया। -अभिनय आकाश

What is hindu dharma dan act 1951 temple are not free from government control

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