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हू जिंताओ के साथ जो हश्र हुआ उसे ही कहते हैं ‘जैसी करनी वैसी भरनी’

हू जिंताओ के साथ जो हश्र हुआ उसे ही कहते हैं ‘जैसी करनी वैसी भरनी’

हू जिंताओ के साथ जो हश्र हुआ उसे ही कहते हैं ‘जैसी करनी वैसी भरनी’

राजनीति और इतिहास की दुनिया में एक कहावत बार-बार दोहराई जाती है। कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि 22 अक्टूबर 2002 की तारीख को हिमालय के दूसरी तरफ, द ग्रेट चाइना वाल के उस पार जो कुछ हुआ, क्या उसे 14 मार्च 1998 की पुनरावृत्ति कहेंगे? चौबीस साल पहले का मार्च का महीना हर साल की ही तरह था। जैसा कि मार्च के महीने में होता है, दिल्ली से सर्दी की विदाई हो रही थी, गर्मियों की आहट सुनाई देने लगी थी। देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष रोजाना की तरह अपनी शाम की चौपाल लगाते थे। खाता न बही, जो केसरी कहें वहीं सही का मुहावरा रच चुके सीताराम केसरी भांप नहीं पाए कि जिस कांग्रेस के वे अरसे बाद निर्वाचित अध्यक्ष चुने गए हैं, उसी कांग्रेस के कुछ लोगों ने उनके तख्ता पलट की तैयारी कर ली है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बीच सीताराम केसरी की धोती खींच दी गई। उन्हें तकरीबन जबरदस्ती कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। केसरी कहते रह गए कि कार्यसमिति की बैठक, उसमें सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने के लिए रखे गए प्रस्ताव, सभी पार्टी संविधान के मुताबिक असंवैधानिक हैं। लेकिन उनकी नहीं सुनी गई और उन्हें बेइज्जत करके बाहर निकाल दिया गया। कुछ ऐसा ही नजारा दिल्ली से करीब आठ हजार एक सौ पचास किलोमीटर दूर बीजिंग में भी 22 अक्टूबर 2022 को दिखा। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीसवें महाधिवेशन के आखिरी दिन चीन के दस साल राष्ट्रपति रहे हू जिंताओं को बीच बैठक से सुरक्षाकर्मियों ने जबरिया उठाकर बाहर निकाल दिया। तब वे राष्ट्रपति शी जिनफिंग और प्रधानमंत्री ली खेचियांग के बीच पहली ही कतार में बैठे हुए थे। जब उन्हें जबरिया निकाला जा रहा था, तब उन्होंने संभवत: विरोध किया। उन्होंने राष्ट्रपति और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख शी जिनफिंग से कुछ कहा भी, लेकिन उन्होंने क्या कहा, यह स्पष्ट नहीं हो पाया है। उन्होंने अपने चेले प्रधानमंत्री ली खेचियांग के कंधे पर भी हाथ रखा। लेकिन खेचियांग भी कुछ नहीं कर पाए। उन्हें तकरीबन लाचारी हालत में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महाधिवेशन के आखिरी सत्र से निकलना पड़ा।

चीन के लिए यह घटना अप्रत्याशित नहीं मानी जा सकती। कम्युनिस्ट पार्टियों का जो चलन रहा है, जिस तरह वे सर्वहारा के अधिनायकत्व का समर्थन करती हैं, वहां मानवीय मूल्य और विचार कोई मायने नहीं रखते। सर्वहारा को ताकत और अधिकार देने की हिमायत करने वाले मार्क्सवादी दर्शन पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों से मानवीयता की उम्मीद करना बेमानी है। दुनिया में मार्क्सवाद की बुनियाद पर पहली क्रांति 1917 में रूस में हुई और वहां के राजा जार के शासन का खात्मा हुआ। इसके बाद लेनिन के खूंखार नेतृत्व में जारशाही के एक प्रतीक को खत्म किया गया। इस दौरान जार के परिवार के एक-एक सदस्य को चुन-चुनकर मारा गया। सर्वहारा को अधिकार देने वाली विचारधारा के नाम पहले लेनिन और बाद में स्टालिन ने अपने विरोधियों को चुन-चुनकर निबटाया। उनकी हत्याएं की गईं, विरोधियों के समूल सफाए के लिए परिवार के परिवार को खत्म किया गया।

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चीन में आज जिस कम्युनिस्ट पार्टी का एकाधिकारवादी शासन है, उसकी वैचारिक बुनियाद मार्क्स से भी एक कदम आगे माओ की वैचारिकी है। माओ कहते थे कि सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है। उन्होंने भी अपने तीस साल के शासनकाल में अपने वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों को चुन-चुनकर निबटाया। खूंखार कदम उठाने में उनका भी सानी नहीं रहा। ऐसे में चीन की दीवार के पार वहां की क्रूरता की कहानियां रूस की तुलना में कहीं ज्यादा बाहर आनी ही चाहिए थी और ऐसा हुआ भी। चीन ने जिस तरह तिब्बत पर 1959 में कब्जा किया, उसकी पूरी दुनिया निंदा करती रही है। तिब्बत से लगातार मानवाधिकार उल्लंघन की खबरें वैश्विक मीडिया की सुर्खियां बनती रहती हैं। जाहिर है कि चीन और उसकी कम्युनिस्ट पार्टी का अपना दामन भी कोई बेहतर नहीं है।

यहां यह भी याद किया जाना चाहिए कि जिस हू जिंताओ का सीताराम केसरीकरण हुआ है, वे भी कम खूंखार नहीं रहे। जिंताओ साल 2002 से 2012 तक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे। यहां यह जानना चाहिए कि कम्युनिस्ट पार्टियों में महासचिव सबसे बड़ा पद होता है। जिंताओ साल 2003 से 2013 तक पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के अध्यक्ष भी रहे। इसके साथ ही वे 2004 से 2012 तक केंद्रीय सैन्य आयोग के अध्यक्ष भी रहे। हु जिंताओ 1992 से 2012 तक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति के भी सदस्य रह चुके हैं। इसी ब्यूरो का चीन पर वास्तविक नियंत्रण होता है। इन तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि हू 2002 से 2012 तक चीन के सर्वोच्च नेता रहे।

जिंताओं दरअसल चीन के गुइझोउ प्रांत से आते हैं, जो तिब्बत से सटा हुआ है। इस प्रांत और तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र वे पार्टी सचिव रहे। जिंताओ का मानना था कि तिब्बती कभी चीन के सगे नहीं हो सकते। इसलिए तिब्बत में जारी रहे आंदोलनों को कुचलने के लिए उन्होंने कठोर कार्रवाई की। उऩके इस खूंखार काम ने तब की चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं का ध्यान जिंताओं की तरफ गया और उन्हें केंद्रीय टीम में काम करने का मौका मिला। बाद में वे चीन के सर्वोच्च नेता बन बैठे। उनके कार्यकाल में चीन आर्थिक रूप से ताकतवर होने की तरफ बढ़ा। अफ्रीका और दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप में चीन की पहुंच बढ़ी। जिंताओ की गिनती शी जिनफिंग के विरोधी के तौर पर होती है। 2012 में अपने कार्यकाल के पूरा होने के बाद जिंताओं ने शी जिनफिंग की ही तरह उस कानून को बदलवाने की कोशिश की थी, जिसके तहत कोई भी व्यक्ति चीन में सिर्फ दो बार राष्ट्रपति रह सकता है। तब जिंताओ नाकाम रहे।

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हालांकि शी जिनफिंग इस मामले में कामयाब रहे और शायद पूरी जिंदगी तक वे राष्ट्रपति रह सकते हैं। जब जिंताओ असफल रहे तो उन्होंने अपने चहेते ली खेचियांग और हू चुन्हुआ में से किसी एक को राष्ट्रपति बनवाने की कोशिश की, लेकिन ऐसा भी नहीं हो पाया। खेचियांग को प्रधानमंत्री पद से ही संतोष करना पड़ा। जब दो साल पहले गलवान में चीन और भारत के सैनिकों के बीच झड़प हुई थी, तब खेचियांग से जिंताओ के मतभेद सतह पर आ गए थे। बहरहाल अब ये खेचियांग प्रधानमंत्री भी नहीं रहे और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान के मुताबिक अगले साल 68 साल की उम्र में रिटायर भी हो जाएंगे।

जिंताओ के साथ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महाधिवेशन में जो अमानवीय व्यवहार हुआ, वह शायद उन लोगों को शायद ही परेशान कर पाए, जिन्होंने तिब्बत के आंदोलन और उसे चीनी सेना द्वारा निर्ममतापूर्वक कुचले जाने की जानकारी है। जिंताओ के ही कार्यकाल में तिब्बत की जनसांख्यिकी को बदलने के लिए चीनी लोगों को तिब्बती लोगों के विरोध के बावजूद बसाया जाना शुरू हुआ। जिंताओं ने ही सैन्य आयोग के अध्यक्ष के नाते बौद्ध मठों में सैनिक अफसरों को बैठा दिया, ताकि कोई मठ चीन के खिलाफ विरोध न कर सके। शांत बौद्ध समुदाय पर चीनी सेना ने उनके ही कार्यकाल में कहर बरपाया।

जिंताओ को जबरिया महाधिवेशन से बाहर करने का संदेश साफ है कि अब चीन और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में विरोधी आवाजों का कोई मतलब नहीं रहेगा। अगर कोई कोशिश भी करेगा तो उसका भी हाल जिंताओ जैसा या उससे भी बुरा हो सकता है। भारत में लोकतंत्र है, यहां तमाम किंतु-परंतु के बाद भी कुछ लोकलाज-लिहाज है। शायद यही वजह है कि सीताराम केसरी को सिर्फ बेइज्जती झेलनी पड़ी, लेकिन चीन में सर्वहारा की तानाशाही के साथ माओ के बारूद की गंध भी है। जाहिर है कि वहां विरोध के जो सुर भविष्य में अगर उठेंगे भी तो उन्हें न कुचले जाने का सवाल ही नहीं उठता। इसलिए आने वाले दिनों में चीन की राजनीति और अंदरूनी हालात दिलचस्प रहने वाले हैं।

-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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