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Gyan Ganga: भगवान श्रीराम को देखकर अचानक ठिठक क्यों गये थे विभीषण?

Gyan Ganga: भगवान श्रीराम को देखकर अचानक ठिठक क्यों गये थे विभीषण?

Gyan Ganga: भगवान श्रीराम को देखकर अचानक ठिठक क्यों गये थे विभीषण?

भगवान श्रीराम जी ने श्रीविभीषण जी को सम्मान लिवाने के लिए, सुग्रीव व अंगद सहित अपने प्रमुख गणों को भेजा। इस संपूर्ण घटनाक्रम के दौरान, समस्त वानर सेना में एक विलक्षण-सा चाव था। इसका कारण था, कि जिस पर भी श्रीराम जी स्वयं प्रसन्न हो जायें, उस पर तो समस्त सृष्टि ही मोहित हो जाती है। गोस्वामी जी लिखते हैं, कि श्रीविभीषण जी ने जैसे ही, श्रीराम जी के दर्शन किए, तो वे प्रभु की सुंदर छवि को देखते ही रह गए। उन्होंने इससे पूर्व किसी को भी इतना सुंदर व आकर्षण से भरपूर नहीं देखा था-

‘बहुरि राम छबिधाम बिलाकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन।।’

श्रीविभीषण जी ने जैसे ही श्रीराम जी को दूर से देखा, तो एक बार तो वे ठिठक से गए। और श्रीराम की मोहिनी सूरत को देखकर, एकटक बस देखते ही रह गए। भगवान की विशाल भुजाएँ हैं। लाल कमल के समान नेत्र हैं, और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है। ऐसे तो श्रीविभीषण जी अनन्त काल तक ही श्रीराम जी को निहारते रहते। और श्रीराम जी की लीला बीच अधर में ही रह जाती। शायद यही विचार कर, श्रीविभीषण जी धीरज रख कर बोले-

‘नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्रता।।
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पसर नेहा।।’

हे प्रभु, क्या आपको अच्छी प्रकार से तो मेरी वृति का ज्ञान है न? कारण कि मेरे में गुण तो एक भी नहीं है। उल्टे सिर से नख तक मैं अवगुणों से भरा हुआ हूँ। आप सोच रहे होंगे, कि सबसे प्रथम मेरा कौन-सा अवगुण देखोगे। तो आपकी यह समस्या मैं स्वयं ही हल किए देता हूँ। मेरी सबसे घृणा योग्य व निंदनीय अपात्रता व दुर्भाग्य यह है, कि मैं दसानन का भाई हूँ। मेरा दृढ़ मानना है, कि भले ही मैं अखण्ड तपस्वी भी क्युँ न होता, लेकिन अगर मैं रावण का भाई हूँ, तो समझो कि मेरा समस्त त्याग व तपस्या, किसी लेखे में नहीं। या यूँ कहें कि सब व्यर्थ है। वैसे तो केवल इतना ही मेरे विनाश के लिए प्रयाप्त है। लेकिन मेरा दुर्भाग्य ऐसा है, कि इसकी गणना समाप्त ही नहीं हो पा रही है। कारण कि, मेरा वंश भी अच्छा नहीं है। मैं निसिचर वंश में जन्मा हूँ। भले ही लंका नगरी में मुझे मंत्री पद् प्राप्त था। लेकिन सत्यता तो यही है, कि मैं राक्षसों की ऐसी दुष्ट जाति से संबंधित रखता हूँ, जो कि देवताओं को त्रास देने के लिए ही अस्तित्व में आई है। अब आप ही सोचें, कि जिसकी जाति का मानो आधार ही ऐसा हो, कि वे सब देवताओं के शत्रु से ही जाने जाते हों, तो भला ऐसी कुल का क्या लाभ? चलो माना कि इतना भर भी हो गया। लेकिन तब भी मैं विलक्षण प्रयासों के चलते, जप-तप करके आपके दर्शन योग्य हो जाता। लेकिन समस्या यहाँ भी गंभीर है। कारण कि मेरी देह इस प्रकार की प्रवृति ही नहीं रखती। जी हाँ, मेरी तामस वृति की देह आपके भजन में एक भयंकर रोड़ा है। मुझे पाप करने में किंचित भी संकोच नहीं होता है। पाप करने के लिए मुझे कुछ विशेष प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती। अपितु पाप मुझे कुछ इस प्रकार से प्रिय है, जैसे उल्लू को अंधेरा प्रिय होता है।

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हे प्रभु! इतना होने पर भी जब मैंने आप का यश श्रवण किया, तो मुझे ऐसी आशा बँधी, कि आप तो भय का नाश करने वाले, दुखियों के दुख दूर करने वाले एवं शरणागत को सुख देने वाले हैं। मेरी तो आपसे एक ही पुकार है, कि आप तो बस मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए-

‘अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।।’

श्रीराम जी ने जब श्रीविभीषण जी को ऐसे चरणों में दंडवत होते देखा, तो मानों उनसे ऐेसा देखा-सा नहीं गया। कारण कि श्रीराम जी की पावन दृष्टि में, श्रीविभीषण कोई सामान्य स्तर के भक्त नहीं थे। अपितु प्रभु तो उन्हें अतिअंत सम्मान, स्नेह व प्रेम की दृष्टि से देखते थे। प्रभु ने सोचा, श्रीविभीषण जी का चरणों में लेटने का अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। कारण कि रावण के चरण पकड़ने के पश्चात भी इन्हें लात पड़ी। घर से बेघर होना पड़ा। भरी सभा में अपमानित होना पड़ा। हमें इनके साथ हुई इस हानि की अच्छे से भरपाई करनी है। हमें इन्हें यूँ ही चरणों में ही नहीं पड़े रहने देना है। अपितु अपने हृदय से लगाना है। यह सोच कर श्रीराम जी ने श्रीविभीषण जी को, अपने कर कमलों से उठाया, और अपने हृदय से लगा लिया। केवल इतना ही नहीं। श्रीराम जी ने, श्रीविभीषण जी को, अपने भाई श्रीलक्षमण से भी गले ही मिलवाया। और उसके बाद भी ऐसा सम्मान दिया, कि समस्त वानर सेना भी देखती रह गई। जी हाँ! भगवान श्रीराम ने, श्रीविभीषण जी को अपने से अलग न बिठाकर, अपने साथ आसन पर बिठाया। और अपने इस प्रेम भरे व्यवहार से जता दिया, कि हे विभीषण, मेरे दरबार में, तुम अपने असितत्व व सम्मान को लेकर सदा निश्चिंत रहना। कारण कि तुम अब रावण के परिवार से नहीं, अपितु मेरे परिवार से हो।

इसके बाद श्रीराम जी ने जो शब्द श्रीविभीषण जी को कहे, वे तो सबकी कल्पना से परे थे। जिसे श्रवण कर श्रीविभीषण जी सहित, समस्त वानर सेना बस देखती ही रह गई। ऐसा विचित्र व कल्पना से परे श्रीराम जी ने क्या कहा, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती

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